अहम्
अहम्
आकाश को गये पाँच दिन हो गये। एक-दो दिन मुझे अकेलेपन का कोई खास अहसास नहीं हुआ । सब कुछ अपनी मनमर्जी से बीता ।
पर, आज तो सवेरे से ही मन बेचैन था । कभी टीवी खोलती, कभी खिड़की के पास खड़ी होती, तो कभी वार्डरॉब में कपड़ों को निहारती ।हर जगह उनकी यादें पीछा कर रही थीं।
आकाश को न जाने क्या हो गया ! अभी भी गुस्से में हैं या अहम् में !यहाँ से जाने के बाद एक बार भी हाल-चाल तक नहीं पूछा । माना गुस्से में पति-पत्नी के बीच कुछ बातें हो जाती हैं, इसका मतलब यह तो नहीं कि घर छोड़कर ही चले जाएँ? हाँ, मुझे भी उनसे इतनी बहस नहीं करनी चाहिए थी। काश! मैं ही चुप रह जाती तो बात आगे नहीं बढ़ती!
लेकिन पहले तो कभी ऐसा नहीं होता था ।अगर कोई बात पसंद नहीं भी होती, न तो ये इतना रियेक्ट करते, और न ही मैं। जब से घर में सुख-सुविधा अधिक बढने लगी, तभी से टेंशन पाँव पसारने लगी है और हमारे बीच खटपट शुरू हो गई।
मैं मन ही मन विचारने लगी , 'चलो,जो हुआ सो हुआ। दिल कोई मिट्टी का खिलौना तो नहीं! पति-पत्नी में नाराजगी कैसी! अच्छा, अभी मैं आकाश को फोन करके देखती हूँ।'
....
“हेलो...” उधर से आकाश की आवाज सुनते ही मेरे पूरे शरीर में कँपकँपी सी हो गई।
मैने धीरे से पूछा, “कैसे हो?”
“ठीक हूँ।” संक्षिप्त सा जवाब देकर वह चुप हो गये ।
मैने फिर से उन्हें टटोलने की कोशिश की, ”चाय पी ली क्या?”
“नहीं, चाय पीना छोड़ दिया।“
“ क्या?! तबियत तो ठीक है ..?” मैंने घबराकर पूछा ।
“ हाँ, चाय बनाता हूँ...कभी चीनी अधिक, कभी चायपत्ती कम।” सुनते ही आकाश की पुरानी बातें-
'सवेरे की चाय तुम्हारे हाथों से ही अच्छी लगती है। उफफफ! बनाने से पिलाने तक का अंदाज़ ही अलग।' कानों में गूंजने लगी।
“कल से मैने भी कई बार सोचा, तुमसे बात करूँ, पर.. वो...!" आगे के शब्द आकाश के कंठ में फंस कर रह गये। कुछ पल के लिए खामोशी छा गया ।खामोशी दृष्टा बनकर दोनों के हृदय के बढ़ते स्पंदन को महसूस करने लगी ।
लेकिन , आकाश का पति होने का दंभ अभी भी पत्नी के आगे झुकने को तैयार नहीं था।
छलकते आँसूओं को पलकों पर समेटते हुए , अपने स्वाभिमान पर अंकुश लगा कर मैंने आहिस्ते से कहा, “आकाश, जब प्यार का पलड़ा अहम् से भारी लगने लगे, तो घर लौट आना, तुम्हारी बहुत याद आती है। ”