chandraprabha kumar

Classics

3.3  

chandraprabha kumar

Classics

अभिमान व्यर्थ है

अभिमान व्यर्थ है

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   एक पंडित जी को नदी पार जाना था। वे घाट पर पहुँचे और एक नाव में बैठे। मल्लाह से कहा कि पार जाना है। मौसम अच्छा था मन्द मन्द हवा चल रही थी ।मल्लाह नाव खेवे लगा। पंडित जी ने मल्लाह से बात करनी शुरू की। मल्लाह बेचारा अनपढ़ गँवार। पंडित जी को अपनी विद्या का अभिमान था। मल्लाह से उन्होंने पूछा-

" तुमने गणित पढ़ा है ?"

मल्लाह ने कहा- "नहीं महाराज"। 

पंडित जी- " तो तुम्हारी चौथाई उम्र बेकार हुई ।"

 मल्लाह क्या कहता , चुप रहा , नाव खेवे में लगा रहा। 

पंडित जी ने फिर पूछा-" तुमने भूगोल पढ़ा है ?"

 मल्लाह क्या बोलता। वह तो बचपन से नाव चला रहा था। स्कूल जाने का मौक़ा नहीं मिला था ।

  उसने नम्रता से कहा-" महाराज, मैं क्या जानूँ, भूगोल क्या होता है। कभी स्कूल नहीं गया। पढ़ने का मौक़ा नहीं मिला। "

 पंडित जी बोले-" तो तुम्हारा आधी उम्र बेकार गई।       मल्लाह चुप लगा गया। तभी तेज हवा चलने लगी। आँधी आनेवाली थी।आकाश में घटायें छा गईं। नाव डगमग डगमग होने लगी। मल्लाह संभाल नहीं पा रहा था। 

मल्लाह ने पंडित जी से पूछा-"आप तैरना जानते हैं ?"

पंडित जी चुप। उन्होंने पढ़ाई तो की थी, तैरना नहीं सीखा था। क्या बोलते ?

उन्होंने कहा- भाई, मैं तैरना नहीं जानता"। 

मल्लाह ने कहा- पंडित जी, आपकी पूरी उम्र बेकार। अब भयंकर तूफ़ान आने वाला है। नाव उलट जायेगी। 

पंडित जी ने इस स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी। वे अपने को ही बहुत चतुर समझ रहे थे और मल्लाह को अवज्ञा से देख रहे थे। 

हर व्यक्ति में कुछ न कुछ गुण होता है। इसलिये अपने में अभिमान नहीं करना चाहिये। दूसरे के गुण का सम्मान करना चाहिये। दुनिया में तरह तरह के लोग हैं, कोई किसी बात में अच्छा है कोई किसी बात में।सभी के सहयोग से काम होता है। 


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