अबे ये तो अंधा है
अबे ये तो अंधा है
देखिये हम बहुत ही सौहार्द दिल के है। ना ही किसी का बुरा चाहतें है और न ही किसी का बुरा कर पाते हैं, इसलिए हम किसी से बुरे की अपेक्षा भी नहीं करते। लेकिन एक दिन जब किसी का उपहास हमारे संकुचित दिल को छुआ तो एकाएक बढ़ती स्पंदन, मेरे नाज़ुक से शरीर को फौलाद समझने की भूल कर बैठी। फिर हमने दिल को समझाया
‘ नादानों की नादानी का क्या
उनकी अक्ल सयानी का क्या’
पर दिल तो दिल है। इतने से कहां माने।
किस्सा यह है की एक रोज़ जब अपनी प्रतिष्ठित दुकान में बैठे बैठे फलाना अखबार में दिए जाने वाले सुडोकू पहेली को हल कर रहे थे तो मुझसे बाईं तरफ लगभग 30 के कोण और 15 मीटर की दूरी पर एक आदमी, अब वो आदमी कैसा दिखता था ये तो मुझे मालूम नहीं क्योंकि मेरा पूरा ध्यान तो सुडोकू के खानों में घुसा हुआ था। वैसे हम रहे अपनी दुनिया के जबरदस्त सुडोकू चैंपियन। हमारा रेकॉर्ड टाइम ढाई मिनट के आस पास का है। बस इसी अहम में एक एक सेकंड का ध्यान रखके हम एक एक खाना भरे जा रहे थे। पर वो आदमी, जिसकी नज़र हमसे एक विशेष कोण बनाई हुई थी, ने बड़े देर तक हमारा अवलोकन करते हुए यह बोल पड़ा, ’अबे ये सो रहा है की लिख रहा है।’
यह बोलकर और ठहाके लगाते हुए वह बगल वाली नाई की दुकान में जा घुसा। जहां नाई भी अपना पेट दबाये एक हंसी हंस ही गया था। वैसे मैं यहां बताता चलूँ की हम कोई आम आदमी नहीं हैं। भगवान की हमपर असीम कृपा है, लेकिन वो कृपा थोड़ी देर से हुई ये भी सच है। उन्होंने मुझसे सब छीन जाने तो दिया, जिसमें हमारी नज़र भी शामिल है, लेकिन एक बुद्धि बचा ली जिसका प्रयोग हम आज कल साहित्य में भली प्रकार से कर रहे है। खैर छोड़िये।
हालांकि, हमने सोचा ये तो आते जाते लोग है, इनके कहने और ना कहने से क्या फर्क पड़ता है। लेकिन याददाश्त नाम की भी तो चीज होती है। बातें तो भुलाई नहीं जाती। हमने इसको नज़रअंदाज़ करना चाहा पर ऐसा हुआ नहीं। कुछ दिनों के बाद एक कामगार आदमी ने दुकान पर आकर मुझसे समान की मांग कर दी। हमने जी हुज़ूर करके अपने कर्तव्य का पालन किया और सामने टेबल पर रख दिया। उन्होंने अपने जेब से एक पन्नी निकाली और उसमें तह करके रखे गए नोटों में से एक 10 का नोट छाँटकर मेरी और सरका दिया। मैंने भी निर्मलता दिखाते हुए बदले में सामने दो सिक्के रख दिए। क्योंकि मुझे वापस करने थे 3 रुपये, तो मैंने 2 सिक्के दे दिए , लेकिन वो दोनों ही एक एक रुपये के सिक्के निकले। तो फिर उस कामगार ने बिना देर किये शिकायत भी कर दी। मैंने एक सिक्का लेकर उसे 1 रुपये वाले डब्बे में रखा और 2 रुपए वाले डब्बे में से एक सिक्का निकालकर दे दिया। पर फिर से उस कामगार ने एतराज़ दिखाते हुए 1 रुपये के सिक्के की शिकायत बहाल कर दी। मैंने वो सिक्का उठाया और करीब से देखा तो वह अपने साथी से एक हृदयभेदी वाक्य बोल पड़ा,’ अबे ये तो अंधा है।’
ये शब्द सुनकर सेकंड के 100 पलों में से कुछ पल के लिए हम सुन्न पड़ गए। शायद बचपन से अब तक पहली बार किसी गैर से ये शब्द सुना था। हमारी स्पंदन फिर से एकाएक बढ़ी। ज़ुबान तो मानो सील ही गयी थी। लेकिन फिर हमें अपनी औकात भी याद आई। इसलिए, बिना कुछ कहे, आहिस्ते आहिस्ते हमने अपने आप को समझाया और कहा-
नादानों की नादानी का क्या।
उनकी अक्ल सयानी का क्या।