आमी से गोमती तक आत्मकथा अंश(4)
आमी से गोमती तक आत्मकथा अंश(4)
“ तक़दीर ने मेरे दिल में इश्क़ का बीज डाला था ! ”
किसी ने क्या खूब कहा है, “आत्मकथा लिखते समय लेखक को अपनी आलोचनाओं की परवाह नहीं करनी चाहिए चाहे क्यों ना ज़माना बैरी हो जाय !” सचमुच आत्म की कथा लिखते समय लेखक स्वयम इतना सतर्क और पारदर्शी होता है कि मानो वह आइने के सामने खड़े होकर अपने एक -एक वस्त्र उतार रहा होता है और निर्वस्त्र होकर भी संतुष्ट नहीं हो पाता है। वह स्वयं सतर्क रहता है कि उसकी लेखनी पर कोई उंगली ना उठाये !
कहा जाता है कि महिलाएं आँखें देखकर किसी पुरुष का मन पढ़ने में सिद्धहस्त होती हैं। एक शोध में इस बात की भी पुष्टि हुई है कि महिलाओं को पुरुषों की सोच और भावनाओं को समझने की क्षमता उनमें उपलब्ध संज्ञानात्मक सहानुभूति (काग्निटिव इम्पैथी) की वज़ह से सशक्त बनती है जो पुरुषों की क्षमता से बहुत आगे हुआ करती है। युवावस्था में मुझे जब से विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण का भाव जगना शुरू हुआ मैं भाग्यशाली रहा कि मुझे महिलाओं की उदारता का पूरा लाभ मिलता रहा। चाहे वे गाँव की सीधी –सादी, बिना लाग - लपेट की व्यवहार करने वाली महिलाएं हों या शहर की नाज़- नखरे उठाने वाली महिलाएं।उन दिनों शहरों में आज जैसे खुले वातावरण नहीं हुआ करते थे लेकिन गाँव में सेक्स के प्रति महिलाओं की कोई बहुत बड़ी सोच नहीं हुआ करती थी। आज तो अपने शहरी कल्चर ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खुले सेक्स की लगभग मान्यता ही दे डाली है। अविवाहित युवक - युवतियां अब सेक्स सम्बन्ध बनाने के लिए शादी तक इंतज़ार करने वाले नहीं ठहरे। विवाहित जोड़े लिविंग रिलेशनशिप में रहकर सामाजिक मान्यताओं को ठेंगा दिखा रहे हैं और इतना ही नहीं कानून ने भी ऐसे सम्बन्धों को मान्यता दे दी है।समय इतनी तेज़ गति से भाग रहा है कि अब तो समलैंगिक सम्बन्ध भी मान्यता पा रहे हैं। कहना यह है कि सेक्स अब कोई सामाजिक टैबू बनकर नहीं रह गया है।
इंटर की पढाई के साथ - साथ मुझे अपनी पुश्तैनी खेती - बारी देखने के लिए गाँव भी जाना पड़ने लग गया था। गोरखपुर से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर सरया तिवारी नामक त्रिपाठी वंशजों के राम घराने के प्रसिद्ध गाँव के विश्वनाथपुर टोले में मेरा हवेलीनुमा घर हुआ करता था। आगे की घटनाएं बताऊँ उसके पहले याद आ रहे हैं डा. रमानाथ अवस्थी जो हिन्दी के एक महान कवि हुए हैं। उनकी एक पंक्ति है – “ कितनी मुश्किल है मोहब्बत की कहानी लिखना, जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना | ” सचमुच जीवन में अगर आपने गम्भीर होकर प्रेम किया है तो उसे व्यक्त करना बहुत मुश्किल काम है। लेकिन वह जीवन भी क्या जीवन जिसमें प्रेम रस की बूँदें न छलकी हों, प्रेमी या प्रेमिका का विछोह न हो,एक दूसरे को पा लेने की तड़प न हो,एक दूसरे में समा जाने की हसरतें न हों ! इसलिए मैनें भी छक कर आनन्द लिया जीवन का, यौवन का। जिन - जिन से दिल लगा,चाहे वह एकतरफा ही क्यों ना रहा हो,वो क्या कहते हैं ‘ प्लेटोनिक लव ‘ ही क्यों ना रहा हो,.... ख़ूब लगा जनाब ! आज उम्र के उनहत्तरवें ( 69 ) सोपान पर जब पहुंच चुका हूँ तब भी “ हर परेशानी को मुंह चिढ़ा कर चरागों की तरह रौशन हो उठते हैं मेरी मोहब्बत के जादुई अक्स ! “अब आप सोच रहे होंगे कि गाँव के कनेक्शन का यह इश्क़, मोहब्बत या सेक्स क्या सम्बन्ध ?तो हुआ यूं कि जब मैंने इंटर पास किया तो मेरी उम्र हो चली थी बीस वर्ष की। विपरीत लिंग के प्रति अपना आकर्षण शुरू हो चला था। उन दिनों ”ए” ग्रेड की फ़िल्में भी धडाधड सिनेमा हाल से ज़हर उगल रही थी और पत्र - पत्रिकाएँ तो थीं ही।अब आप मेरा बहकना कह लीजिए या बचपना समाज की परिभाषा में मैं इन अनैतिक रास्तों पर चल पड़ा था। यानि, समय से पहले मैं उन विषयों की ओर आकृष्ट होता चला गया था जिधर मुझे नहीं होना चाहिए था। हालांकि आगे चलकर मुझे पछतावा भी हुआ और प्रकृति से इसका दंड भी मिला। मुझे युवा स्त्रियों का सौन्दर्य आकृष्ट करने लगा था और मैं उनके करीब से करीब जाने के लिए उतावलेपन का शिकार हो गया था। मेरा गाँव आना - जाना शुरू हो गया था और ग्रामीण युवतियां, उनका अनगढ़ सौन्दर्य, उनकी सहजता और उनका उन्मुक्त मेल- जोल मुझे बहकाने लगे ..और मैं उनमें बहकता चला गया।उन्होंने मेरी आंखों,मेरे ह्रदय और मन की भाषा पढ़ ली और दान-प्रतिदान चलने लगा। हालांकि यह इश्किया सफ़र छोटा रहा लेकिन वे सभी यादगार बन गये हैं उम्र भर के लिए !
वर्ष 1971 में इंटरमीडिएट द्वितीय श्रेणी से पास करके मैंने गोरखपुर विश्वविद्यालय में बी.ए. में प्रवेश लिया। मुझे तीन विषय लेने थे तो मैंने हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य तथा राजनीति शास्त्र का चयन किया। अंग्रेजी मुझ पर पिताजी द्वारा ठीक उसी प्रकार थोपी गई थी जिस प्रकार नौवीं कक्षा में पितामह द्वारा संस्कृत थोप दी गई थी।जब कि आज यह सिद्ध हो गया है कि अभिभावकों को अपनी रूचि अपने बच्चों पर नहीं थोपनी चाहिए। स्कूली माहौल से निकल कर यूनिवर्सिटी के खुले माहौल में आकर मैं हतप्रभ था। हालांकि उन दिनों ग्रेजुएट लेवल पर को -एजूकेशन नहीं था लेकिन लडकियां ही लडकियां तो थीं ही !यानि भरपूर आँख भी सिंकाई की व्यवस्था मिली। मेरी क्लासेज आर्ट्स फैकल्टी में होती थीं और लड़कियों की पन्त ब्लाक में। लेकिन इन दोनों को जोड़ने वाली वह मनोनुकूल जगह थी जहां से लड़कियों की बस आती-जाती थी। लड़कियों का बस से उतरना-चढ़ना और बस के लिए इंतज़ार करते देखना भी युवा मन के लिए सुखदायक होता था।
शुरुआत में ही बता चुका हूँ कि तकदीर ने मेरे दिल में इश्क़ का बीज डाल रखा था।
इश्क मजाज़ी (लौकिक प्रेम) हो या इश्क़ हकीकी ( अलौकिक प्रेम ) ! मैंने अपने जीवन में इन दोनों तरह के प्रेम का खूब छक कर रसपान किया है। जिन दिनों बिमल मित्र का उपन्यास सुरसतिया चर्चा में थी तो मेरे पास मेरी अपनी ‘सुरसतिया ’ अपना प्यार लुटा रही थी। उसके अनगढ़ सौन्दर्य ने मुझे आकर्षित कर दिया और उसके मोहपाश से मैं बच नहीं सका था | शायद वह मेरे कौमार्य की पहली और बार बार अर्पित होने वाली सुन्दर पुष्प थी। उसके बाद तो फिर अनेक ग्रामीण बालाओं ने मुझे मेरा वांछित भरपूर सुख दिया...किसी के शरीर सौष्ठव ने मुझे अपनी ओर चुम्बक की तरह खिंचा तो तो किसी ने डिम्पल गर्ल होने की वज़ह से और किसी की लस्टफुलनेस ने !’ विष्णु पुराण ‘ कहता है कि हँसते समय जिस लडकी के गालों में गड्ढे पड़ते हैं उनका वैवाहिक जीवन सुखमय होता है। एक कहावत और है कि प्यारे इन्सान के लिए एक फरिश्ता नश्वर दुनिया में आता है और डिम्पल टूटे पंखों वाले फरिश्ते की निशानी है। बहरहाल कहावत जो भी हो मेरा अनुभव यह रहा है कि डिम्पल गर्ल यदि उन्मुक्त होकर आपके साथ सहवास करे तो स्वर्ग की परियों के साथ सहवास जैसा सुख मिलता है।
उधर यूनिवर्सिटी के फ्रंट पर भी मेरी इश्किया तलाश जारी थी। ऐसे में किसी दिन एक युवती के सौन्दर्य ने मुझे झंकझोर दिया और मैं उसके रूप का दीवाना हो चला। सबसे पहले मैंने उसका नाम पता लगाया फिर उसे नए साल का ग्रीटिंग कार्ड भेजा। उससे कभी बस स्टैंड पर तो कभी लाइब्रेरी में मुलाकातों का दौर भी चला। एक बार जब मैंने अपनी सायकिल से उसके घर तक का पता लगा लिया तो उसने मेरी इस “ इश्किया निगहबानी “ को गंभीर मानकर नोटिस में लिया। लेकिन इस इश्क के खेल में सब ठीक ही तो नहीं हुआ करता है ! मेरे बड़े भाई साहब प्रोफेसर एस.सी.त्रिपाठी भी उन दिनों उसी यूनिवर्सिटी से एम.एस.सी.करने के बाद रिसर्च कर रहे थे। एक दिन उनके किसी मित्र ने मुझे मिलने का संदेश भेजा तो मैं डर सा गया। तय समय पर मैं यूनिवर्सिटी कैंटीन अपने एक बाहुबली मित्र के साथ जब डरते हुए पहुंचा तो वहां एक सज्जन ने मुझे किनारे ले जाकर मेरी “इश्किया निगहबानी” का चैप्टर क्लोज कर देने का सुझाव दिया क्योंकि “उस” लडकी ने उनकी बहन(और अपनी दोस्त) से इस बाबत शिकायत कर डाली थी। मैंने समझ लिया कि यह मेरा प्यार एकतरफा था और यूनिवर्सिटी प्रेम के किस्से पर फुल स्टाप लग गया।आज जब मैं उन दिनों को याद कर रहा हूँ तो सच मानिए वे पल जीवंत हो उठे हैं। आज वह महिला भी मुझ सलीके प्रौढावस्था में है और उसी गोरखपुर में एक परिचित परिवार की शोभा बढ़ा रही है।अब आप इसे दीवानगी कही या पागलपन, आज भी कभी - कभार सोशल मीडिया पर उसकी छवि देख लेने से अपने आपको रोक नहीं पाता हूँ।कहा गया है न कि ग़लतफ़हमी में जीने का मज़ा ही कुछ और है साहब वरना हकीक़त तो अक्सर रुलाया करती हैं !
युवा जीवन की मेरी इश्किया कहानी ने आगे चलकर और भी रोमांचक टर्न लिए थे। क्या आप उन सभी को सुनना चाहेंगे ? ...अगर हाँ तो मैं आपको निराश नहीं करूंगा। सच यह है कि मैंने अपने जीवन में दिल से चाहा है कइयों को ..किन – किन को गिनाऊं ? शायद यह सोच कर कि जिसे पा नहीं सकते उसे सोचते रहना भी तो इश्क ही है !आख़िर हम खुदा या ईश्वर को भी तो चाहते ही हैं लेकिन क्या वह मिलते हैं ? इश्क़ तो वह भी है ......... लेकिन वे बातें आगे के अंकों में। फिलहाल तो मैं अपने युवावस्था में पनपे प्रेम के लिए यही कहना चाहूँगा – “ ओ मेरे सफल - असफल प्यार ! मैनें समेट कर रखा है,तुम्हारी हर एक चीज़ को – जैसे कोई इतिहास का विद्यार्थी किसी खो रही सभ्यता के निशान बचाता है ! ...तुम ..तुम मेरे जीवन की आखिरी सांस तक मेरी स्मृतियों में बने रहोगे।मेरे होठों पर तुम्हारा नाम आने पर मुझे आज भी अलौकिक खुशी मिलती है क्योंकि उन दिनों में भले मुझे तुम्हारी दैहिक चाह भी रही होगी आज तो सिर्फ और सिर्फ तुम सभी के लिए आत्मिक चाह बनी हुई है। कुछ तो बात थी कि तुम सभी मेरे जीवन में आए थे !अब तो यही लगता है कि-
“ तेरे पास में बैठना भी इबादत, तुझे दूर से देखना भी इबादत।
न माला, न मंतर, न पूजा, न सजदा, तुझे हर घड़ी सोचना भी इबादत !”
मेरे प्रिय कवि “बच्चन” जी का कहना है – “ मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता, शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा !” अपने जीवन की संध्या पर मैं भी पाठकों, सच मानिए, अपने बारे में कुछ भी छिपाना नहीं चाहता हूँ। किसी ने क्या खूब कहा है – “ शौक़ से निकालिए हममें नुक़्स हुज़ूर, आप नहीं होंगे तो हमें तराशेगा कौन ?”..... इसलिए आगे आप सभी पर निर्भर करता है कि आप मेरी सराहना करते हैं, मुझमे कमियाँ निकालते हैं या मेरी आलोचना करते हैं ! जनाब राहत इन्दौरी ने ठीक ही कहा है – मौसम की मनमानी है, आँखों आँखों पानी है। साया - साया लिख डालो, दुनियां धूप कहानी है।”