कवि हरि शंकर गोयल

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कवि हरि शंकर गोयल

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आम और खास

आम और खास

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दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं । एक "आम" और दूसरे "खास" । "आम" जन की कौन परवाह करता है । सबके सब लोग "आम" जन को निचोड़ कर चूसने में लगे रहते हैं । इसलिए इस स्थिति से परेशान होकर सारे आम "मैंगो पार्क" में इकट्ठे हो गए । भांति-भांति के आम भांति-भांति के कपड़े पहन कर आये थे । वैसे तो वे सब "आम" थे मगर सभी के सभी "खास" दिखना चाहते थे इसलिए अपनी विशेषताओं का बखान करने के लिए एक एक एक्सपर्ट को भी साथ लेकर आये थे । 

अब आप पूछेंगे कि ये "आम" इकट्ठे क्यों हुए थे ? सवाल वाजिब है आपका । वस्तुत : सभी "आम" परेशान थे । सभी की शिकायत थी कि लोग उन्हें बुरी तरह से "चूसते" हैं । जरा सा भी लिहाज नहीं करते । निर्दयता पूर्वक इतना चूसते हैं कि केवल गुठली गुठली छोड़ते हैं और बाकी सारा गूदा चूस जाते हैं । कुछ लोग तो इतने दुष्ट हैं कि वे छिलके भी खा जाते हैं । बस, इसी परेशानी के कारण सभी आम "मैंगो पार्क" में इकट्ठे हो गए थे । 


सबसे पहले "तोतापुरी आम" उठा । देखने में ही वह नेता लग रहा था । तोते की तरह दिखने के कारण इसे तोतापुरी आम कहा जाता है । स्वाद में बहुत अच्छा नहीं लगता जो कि हर नेता का स्वाभाविक गुण है । लेकिन सस्ता होता है इसलिए "आमजन" के लिए यह एक सहज सुलभ "आम" है और इसीलिए यह "बिकता" भी है । तो अपनी पैनी चोंच चला चला कर तोतापुरी आम कहने लगा 

"भाइयों । हमारे ऊपर सदियों से ही अत्याचार होता आया है । जबसे हम पैदा हुए हैं तबसे ही हमें कोई चूस कर खा रहा है तो कोई काट कर । जैसे हम पैदा ही चुसवाने के लिए हुए हैं । अब बहुत हो चुका , अब और बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं । आज हमको कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा" । 

वस्तुत: तोतापुरी आम बाजार में आने वाला सबसे पहला आम है जो अप्रैल माह में आ जाता है । यह सबसे सस्ता भी होता है इसलिए यह आमजन का आम कहलाता है । ज्यादा मीठा नहीं होता है लेकिन "आम" होने का अहसास ही इसे "बिकाऊ" बना देता है । बस, मन बहलाने के लिए कि आम खाना है तो इसको ले आते हैं । "खास" लोगों की कभी पसंद नहीं रहा यह आम । रहेगा भी कैसे ? "खास" लोगों की पसंद भी "खास" ही होती है । 


इसके बाद आता है "हापुस" । मूलतः इसका नाम "अलफेंसो" है जो पुर्तगाली नाम है । यह शायद तब पैदा हुआ था जब भारत के एक भूभाग जैसे गोवा , दमन , द्वीव पर पुर्तगाल का आधिपत्य था । उस समय के पुर्तगाली गवर्नर के नाम पर इसका नामकरण हुआ जो बाद में उत्तर प्रदेश के मेरठ में जाकर "हापुस" हो गया । और तभी से यह "हापुस" के नाम से जाना जाता है। 


सबसे मंहगा आम होता है यह । लगभग 300 रुपए किलो के भाव से बिकता है । मीठा , मंहगा और विशिष्ट स्वाद के कारण यह "खास" लोगों की आंखों का तारा बना हुआ है। आकार में भी छोटा होता है । "आमजन" तो इसकी तरफ देखने की जुर्रत भी नहीं कर सकते क्योंकि उनके लिए तो "ये मुंह और मसूर की दाल" की तरह से "ये मुंह और हापुस आम" ? वाली कहावत चरितार्थ होती है । हां हां , पता है कि अभी तक यह कहावत बनी नहीं है मगर आज बन गई है न । तो अब इसे काम में ले सकते हैं।


हापुस आम अप्रैल में आता है और मई तक रहता है बाजार में । किसी किसी जगह बाद में भी मिल जाता है । मीठा और मंहगा होने के कारण शायद इसे "आमों का राजा" भी कहते हैं लोग । 


चूंकि यह "खास आम" है इसलिए अपनी आदत के अनुसार अपने "स्टैंडर्ड" के अनुरूप ही अपनी चमचा मंडली के साथ ये मंच पर अवतरित हुए। खास लोग "चांदी का चम्मच" मुंह में लेकर अवतरित होते हैं , पैदा नहीं होते । पैदा तो आम लोग ही होते हैं । खास लोग बोलते भी कम हैं तोल मोल कर । इसलिए शब्दों को चबा चबाकर कहने लगे 

"भाइयों , यूं तो हम चाहे कितने भी "खास" हैं , मगर हम सबकी गति तो एक ही होती है । सबके सब चूसने के ही काम आते हैं । आम हो या खास , सबका एक ही काम है । चुसना । अब तक चुसें ? कोई तो सीमा होनी चाहिए ना ? चूंकि यह संकट "आम" बिरादरी का है इसलिए मैं सबके साथ हूं । वरना तो आप मेरी "वैल्यू" जानते ही हैं" वह कॉलर ऊपर करके बोला । 


खास लोगों की यही विशेषता होती है कि वे अपने "खास" होने का बखान गाहे-बगाहे करते रहते हैं । "हापुस" ने भी मौका जाने नहीं दिया और बाकी आमों को अपने "खास" होने का अहसास करा ही दिया । 


अब बारी आई "बादामी" आम की । सबसे मोटा होने के कारण उससे चला भी नहीं जा रहा था । चेहरे पर नूर बरस रहा था उसके इसलिए एकदम से पीला हो रहा था । अरे भाईसाहब , आप ग़लत समझ रहे हैं । वह गुस्से से लाल पीला नहीं हो रहा था वरन अपने "खट्टे मीठे" स्वभाव से इतरा कर "पीला" हो रहा था । भगवान की कृपा थोक भाव से मिल रही थी और खाते पीते घर का था तो फूलकर कुप्पा हो रहा था ।


मई के महीने में इसकी एंट्री होती है जो जून तक रहती है । सबसे अधिक गूदा इसी में होता है इसलिए "मैंगो ज्यूस और शेक" बनाने में सबसे ज्यादा यही आम काम में आता है । मूल्य भी "मध्यम" ही रहता है । शुरू में सौ रुपए किलो के करीब होता है जो घटते घटते पचास रुपए किलो तक आ जाता है । मध्यम वर्ग का सबसे अधिक लोकप्रिय आम है यह । निम्न वर्ग का भी चहेता है । वस्तुत: यह आम पूरी "आम प्रजाति" का प्रतिनिधित्व करता है । अगर कोई केवल "आम" कहकर पुकारे तो समझ जाओ कि वह "बादामी" आम के बारे में बात कर रहा है । 


तो बादामी आम घिसटते घिसटते मंच पर पहुंचा । जैसा मोटा वह , वैसे ही मोटा उसका मुंह । इसलिए उससे कुछ बोला ही नहीं गया । बस खींसे निपोर कर आ गया । 


अब बारी आई "केसर" आम की । कहीं कहीं इसे "केशर" आम भी कहते हैं । मूलतः गुजरात का आम है यह जो धीरे-धीरे पूरे देश पर उसी तरह छा गया जिस तरह गुजरात के "दो आदमी" पूरे देश पर छा गए । पर ये भी अजीब विडंबना है कि कुछ लोगों को उन "दो आदमियों" से इतनी ज्यादा दिक्कत है कि वे उनकी शक्ल देखना तो दूर , नाम तक लेना नहीं चाहते हैं । ऐसे लोगों ने "केसर" का भी प्रवेश अपने घरों में निषिद्ध किया हुआ है । भई वाह ! नफ़रत हो तो ऐसी । 


मूलतः "केसर" की शक्ल सूरत कुछ कुछ "दशहरी" से मिलती जुलती है इसलिए कुछ बेईमान दुकानदार इसे "दशहरी" बता कर भी बेच देते हैं । जो आदमी इन सब "आमों" की वैरायटी पहचानता है , वास्तव में बुद्धिमान वही आदमी है । बाकी तो .. । बाकी के बारे में क्या कहना ! 😄😄😄


अब आते हैं "दशहरी" आम पर । लोग इसको सबसे अच्छा आम बताते हैं । माने कि हापुस के बाद । जब तक मैंने हापुस और चौसा आम नहीं खाया था , मैं भी यही समझता था कि दशहरी ही आमों का राजा है । हापुस खाने के बाद लगा कि शायद हापुस ही राजा हो । मगर इसकी कीमत इसे बार बार खरीदने नहीं देती । अब तीन सौ रुपए किलो का हापुस कहां से खाये कोई ? फिर स्वाद भी ऐसा कोई अजूबा भी नहीं कि उसे खाये बिना रह नहीं पाये ‌‌‌ ।यह तो एक ऐसी "नारी" साबित हुई कि जब तक वह घूंघट में थी , बहुत मनभावनी लग रही थी लेकिन जैसे ही घूंघटा हटा कि लगा, नहीं , उतनी सुंदर तो नहीं है जितने कि चर्चे हो रहे हैं । यहां पर जितने भी "नारीवादी" लोग बैठे हैं उनसे में इस बेमेल तुलना के लिए पहले से ही क्षमायाचना कर लेता हूं वरना मुझे दंभी , अहंकारी पुरुष वादी मानसिकता का व्यक्ति घोषित कर देंगे ये लोग । 


तो दशहरी आम अपने आप को आमों का राजा समझता है और लोगों ने उसे यह अहसास करा भी रखा है इसलिए वह घमंड़ से चूर होकर मंच पर आया और बोला 

"हमें 'आम' समझने की कोई भूल मत करना । वैसे नाम हमारा "आम" है मगर हम "आम" नहीं हैं । कुछ जगह हम सत्ता में हैं इसलिए अब "खास" हो गये हैं । और हमको हल्के में कोई भी ना ले , ये बात मैं सबसे कह देता हूं" । 


उसकी इस बात पर बादामी, लंगड़ा , चौंसा और तोतापुरी आम ने खूब तालियां पीटी । हापुस चिढ़कर बोला "अरे, इतनी तालियां क्यों पीट रहे हो भाई , ऐसा क्या कह दिया उसने" ? 


उन चारों ने बड़ी हिकारत से हापुस की ओर देखा । चूंकि हापुस सबसे मंहगा आम है इसलिए वह हमेशा "अमीरों" का चहेता बना हुआ है और इसी बात पर वह इतराता फिरता था । और इसी से बाकी चारों चिढ़ते थे । आज बाकी चारों को मौका मिल गया था उसे जलील करने का । चारों एक साथ बोले 

"उसने कहा था ना कि हमको हल्के में मत लेना" । वे चारों अपने थुलथुल शरीर की ओर इशारा करके बोले । देखा , इसीलिए कहा था उसने । पर तुम ? तुम तो वैसे भी हल्के फुल्के हो । तुम्हें तो हर कोई हल्के में ही लेगा ना" । और वे चारों उसे चिढ़ाते हुए जोर जोर से हंसने लगे । अमीरों का स्वभाव है कि वे छोटे आदमी के मुंह नहीं लगते हैं । यह बात "हापुस" अमीरों के साथ रहकर सीख गया था इसलिए उसने इन "ओछे आमों" के मुंह लगने से बेहतर वहां से चले जाना समझा । 


दरअसल दशहरी आम मई के आखिर में आता है और पूरे जून चलता है । पंद्रह जुलाई तक खिंच जाता है फिर गायब हो जाता है । उसके बाद लंगड़ा पिक्चर में आता है । 


लंगड़ा आम लंगड़ाते लंगड़ाते मंच पर पहुंचा । मंच से ही दहाड़ लगाई 

"हम लंगड़े हैं तो क्या हुआ हम तगड़े हैं । और इतने तगड़े हैं कि एक बार अगर किसी पर गिर पड़ें तो फिर उसका "राम नाम सत्य" करके ही उठते हैं । इसलिए हमसे बचकर रहना" । 


दरअसल लंगड़ा आम जुलाई में आता है और पूरे जुलाई में राज करता है । बड़ा प्यारा सा "गोलू मोलू" आम है यह । गोल-मटोल होने के कारण यह लुढ़कता रहता है । बड़ा खट्टा मीठा स्वाद होता है इसका । बिल्कुल "सोणी कुड़ी" की तरह जो थोड़ी तीखी और थोड़ी मीठी होती है । खाने में बहुत आनंद आता है इस आम को। 


अब बारी आई "चौंसा" की ‌। बड़े लोग बीच बीच में फुदकते नहीं हैं , अपनी बारी का इंतजार करते हैं और फिर अपनी बात कहते हैं । चौसा भी बड़ा आम था इसलिए उसने बड़प्पन दिखाते हुए धैर्य बनाए रखा और सबके अंत में आया । 

पंद्रह जुलाई के बाद इसकी एंट्री होती है । मेरे अनुसार यह आम सर्वश्रेष्ठ है । अगर किसी ने चौंसा नहीं खाया हो तो उसका जीवन ही अकारथ चला गया समझो । बस , इसका सीजन आ रहा है इसलिए एक बार जरूर खाकर देखना । और फिर मेरी बात पर टिप्पणी करना ।


चौसा एक बड़ा सा आम होता है । कहते हैं कि शेरशाह सूरी और हुमायूं के "चौंसा युद्ध" के बाद से इसका नामकरण संस्कार हुआ था । बिहार और उत्तर प्रदेश वाले तो इसे भली-भांति जानते होंगे । बहुत मीठा होता है यह । बस, खाते जाओ , खाते जाओ । लगभग सौ सवा सौ रुपए किलो के हिसाब से मिलता है यह । 


अंत में चौंसा मंच पर आया और बोला "भाइयों , हम में से ही कुछ "आम" अब "खास" हो गए हैं । सत्ता का नशा ही ऐसा होता है कि जो "आम जन" की बात कह कह कर "सत्ता" में आए थे वे भी अब "आम" नहीं रहे अपितु "खास" बन गए हैं । जो टोपी उन्होंने पहनी थी उसे अब जनता को पहना दिया है और खुद "मजे से राज" कर रहे हैं । जो ईमानदारी का चोला ओढ़कर आये थे , उन पर अब भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं । "आम" से खास बनने में ज्यादा देर नहीं लगती है । इसलिए जब तक हम लोग "आम" बने रहेंगे तब तक हमारी बात सुनी जायेगी नहीं तो कोई भी हमें घास नहीं डालेगा । वैसे भी आम हो या खास , चुसाई सबकी होती है । इसलिए हमारी भी हो रही है । इस समस्या को लेकर हमें भगवान के पास जाना चाहिए और वहां पर फरियाद करनी चाहिए । क्या पता कोई रास्ता मिल जाये ? 


सभी आमों ने उसकी बात मान ली और भगवान के दरबार में हाजिर हो गए। भगवान ने भी उनकी समस्या सुनी और कहा " एक बात कान खोलकर सुन लो तुम लोग । तुम "आम" हो और "आम" ही रहोगे । आम का काम है चुसना , जो तुम कर रहे हो । देखो , जनता तो तुम्हें चूसेगी ही । जनता को ये वरदान तो मैं पहले से ही दे चुका हूं । इसलिए और कुछ तो अब मेरे पास बचा नहीं है । इसलिए ज्यादा कुछ तो दे नहीं पाऊंगा । "फलों का राजा" वाला ताज अभी तक मेरे पास है । अब मैं तुम्हें वह "फलों का राजा" वाला ताज दे देता हूं। तुम भी क्या याद रखोगे ? 

 राजा बनना किसे अच्छा नहीं लगता है। सभी आम खुश हो गए । "फलों का राजा आम " यह सोचकर ही कुछ आम तो रो पड़े और बाकी भांगड़ा करने लगे । अब सब आम इसी में खुश हैं । 



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