आखिरी पत्र
आखिरी पत्र
प्रिय………
आज बाज़ार में दस साल बाद तुम्हें फिर से देखा तो लगा कि जैसे कॉलेज का वो दिन अभी कल ही गुज़रा हो जब तुम मुझसे यूँ ही टकरा गई थी। इससे पहले कि मैं तुम पर अपने सीनियर होने का रौब झाड़ पाता, मेरी नज़र तुम्हारे मासूम से चेहरे पर पड़ी। बड़ी-बड़ी आंखें, उनमें लगा हुआ पतला काजल, तुम्हारे चेहरे पर झलकती घबराहट जैसे भगवान ने खुद नीचे आकर तुम्हारा रूप अपने हाथों से संवारा हो। उस एक झलक के मिलते ही मैं तुम्हारे ख़यालों में इस तरह से गुम हुआ जैसे तुमने मुझे अपना दीवाना बना लिया हो।
हालांकि इस बात से बेखबर तुम रोज किसी ना किसी सवाल का जवाब पाने के लिए मेरे पास आती थी और मैं तुम्हारे चेहरे की मासूमियत में खोया हुआ तुम्हें जवाब देने की कोशिश करता रहता था। जब पता चला कि तुम्हें भी मेरी तरह गणित पसंद नहीं है तो एकबारगी मन में आया कि सिलेबस से तो क्या, इस दुनिया से ही गणित का नामोनिशान मिटा दूँ लेकिन ऐसा करना मुमकिन नहीं था। फिर तुम्हारी याद में मैं रात को छत पर तारे कैसे गिनता?
खैर मेरी इस एक तरफा मोहब्बत से तुम तो अंजान थी और मेरी इसी मोहब्बत से अगर किसी को सबसे ज्यादा परेशानी होती थी तो वे थे मेरे दोस्त। मैंने उनकी हर गलत सलाह मानने से इनकार जो कर दिया था। उनके साथ किये जाने वाले सभी शौक छोड़ दिए थे मैंने। इस बात से वे सभी मुझसे नाराज रहने लगे।
अपनी नाराजगी तुम पर निकालने के लिए उन्होंने तुम्हें परेशान करने का फैसला लिया। कॉलेज के तीसरे और अंतिम साल की परीक्षा से पहले ही उन्होंने तुम्हारा प्रवेश पत्र चुरा लिया। वो तो अच्छा हुआ कि मैंने उन्हें आपस में बात करते हुए सुन लिया था वरना तुम्हारी सारी मेहनत बेकार हो जाती।
फिर मैंने किसी तरह तुम तक वो परीक्षा पत्र पहुँचाया। उसे पाकर तुम्हारे चेहरे पर जो ख़ुशी आई थी वो आज मेरी कहानी की हर नायिका का एक चेहरा बन गई। उस वक्त मन में आया कि तुम्हें उसी वक़्त अपने दिल की बात बता दूँ कि मैं तुम से कितना प्यार करता हूँ लेकिन नहीं कह पाया। आज लगता हैं कि शायद मैंने कुछ कहा होता या तुमने कुछ समझा होता तो……..
खैर परीक्षा खत्म होने के बाद तो तुम रिजल्ट लेने भी नहीं आई। जिस गणित से तुम इतना भागती थी उसी में टॉप किया था तुमने। तुम्हारा रिजल्ट कोई और आकर ले गया था। इसी के साथ तुमसे मिलने की मेरी सारी उम्मीद खत्म हो गई थी।
आज दस साल बाद जब तुम्हें बाज़ार में देखा तो मन में आया कि दौड़ कर तुम्हारे पास जाऊँ और तुम्हें गले लगाकर पूछूं कि तुम ऐसे अचानक से ही मेरी ज़िंदगी से क्यों चली गई? क्यों मुझसे आखिरी बार मिलने नहीं आई? क्या तुम्हारी कोई मजबूरी थी या तुमने कभी मेरे प्यार को महसूस ही नहीं किया?
मैं ऐसा करता भी लेकिन तुम्हारे गले में मंगलसूत्र देख कर ये एहसास हुआ कि अब तुम्हारे ख़यालों पर भी मेरा कोई अधिकार नहीं है इसलिए अपनी डायरी में तुम्हें लिखे गए इस आखिरी खत में तुम्हारी खुशियों की दुआ करते हुए यहीं कहूँगा कि अपने नाम की तरह हमेशा खुश रहना…….
तुम्हारा सुकांत