ज़िंदगी खेल लगती है
ज़िंदगी खेल लगती है
कभी-कभी तो जेल लगती है
क्यों यह ज़िंदगी खेल लगती है
लोग मिलते हैं कैसे कैसे जमाने में
थक जाते हैं जिनसे निभाने में
जाने अनजाने का मेल लगती है
क्यों यह ज़िंदगी खेल लगती है
कई लोग मिलते हैं बिछड़ जाते हैं
एक चढ़ता है तो दूसरे कई उतर जाते हैं
जन्म से मृत्यु तक की रेल लगती है
क्यों यह ज़िंदगी खेल लगती है
आज शह है तो कल मात होती है
शतरंज की यहाँ बिसात होती है
तक़दीर कब सदा साथ होती है
कभी पास तो कभी फेल लगती है
क्यों यह ज़िंदगी खेल लगती है
कभी-कभी तो जेल लगती है
क्यूँ यह ज़िंदगी खेल लगती है
वक़्त के हाथ की कठपुतली है
कभी गिरती कभी उठती है
कर्म के इशारों पे नचती है
एक खुली जेल लगती है
क्यों यह ज़िंदगी खेल लगती है
कभी-कभी तो जेल लगती है
क्यों यह ज़िंदगी खेल लगती है