यूँही राह तक तक गुज़ार दी...
यूँही राह तक तक गुज़ार दी...
राह तक तक गुज़ार दी तेरे इंतज़ार में, ना जाने कितनी शाम,
हर दम दुआ की फ़रिश्तों से की कभी तो आये तेरी ज़ुबान पे हमारा भी नाम,
यूँ ही राह तक तक गुज़ार दी, आज एक और शाम
शायद क़ाबिल नहीं मैं तेरे दीदार का, तू हाथों में तो था, पर था एक छलकता जाम,
यूँही राह तक तक गुज़ार दी, आज एक और शाम।
ख़वाबों की उधेड़ बुन मे लेता रहा तेरा ही नाम,
की अब अपने नाम से बदलूँ तेरे नाम के पीछे का नाम,
यूँ ही राह तक तक गुज़ार दी, आज एक और शाम
तेरे ख़ुश होने से ही, बन जाएगा मेरी ज़िंदगी का हर काम,
तेरी यादों के सहारे ही बीता दूंगा हर एक शाम,
यूँ ही राह तक तक गुज़ार दी, आज एक और शाम
तुझ में समा कर, शायद मैं खो बैठा हूँ अपनी ही पहचान,
ज़िन्दा है जिस्म, पर मर चुकी है जान,
यूँ ही राह तक तक गुज़ार दी, आज एक और शाम
अब और काम करूं भी तो क्या, भुलाये जो नहीं भूलता ज़हन से तेरा ही नाम,
यूँ ही राह तक तक गुज़ार दी, आज एक और शाम।