युद्ध का दर्द
युद्ध का दर्द


सर्व ओर घनघोर तम है
भीषण हुई अग्नि धरती पर।
युग ने आज बहाये नीर
क्रन्दन का है शोर मही पर।
कहा कृष्ण ने अब ना बनूँगा
किसी युद्ध में मैं सारथि|
हे पार्थ, तेरे सत्य को देख के
मैंने अपनी दृष्टि हार दी|
दो प्रभु स्थान चरणों में
शांति मिलेगी केवल वहीँ पर|
कृष्ण यदि तुम योगी थे
मुरली की कहाँ वो तान गयी।
गोवर्धनधारी ये तो बता दो
"गीता" युद्ध को क्यों मान गयी|
समय चरित्र नहीं बदला तो
क्यों दोष थोप दिया सदी पर।