ये राहें
ये राहें
ये राहें न साहब, डराती हैं,
हँसाती है , रूलाती हैं,
जो सुबह कहीं कोने में बैठने पे मजबूर करती हैं
रातों में मेरा घर हो जाती हैं,
यही राहें साहब
खाना भी यही देती हैं,
इज्ज़त भी यही लेती हैं
दिन रात मेहनत भी करूँ न साहेब
तो भी कई बार गालियां सुनाती है
यही राहें साहब
जब बादल गरजते हैं तो ये कुर्सी के नीचे
पेड़ के पीछे किसी मकान के छज्जे का सहारा ढूंढते हैं
कभी कभी अचानक बारिश से खाना भी भीग जाए
फिर बच्चों को समझना पड़ता है साहेब
उसी में बारिश का लुफ्त उठाते
कीचड़ का छीटा उड़ाते, जो मन में आये खाते
कुछ जो न मन हो पानी में बहाते कोई कार जब गुजरती है,
रोते हुए बच्चों के आसुंओ की आरी तब दिल पर चलती है
साहब दिन तो ढल जाता है वो भी पर रात नहीं कटती है।