वसुंधरा की तरुणाई
वसुंधरा की तरुणाई
एक बार की बात है प्यारे,
तब जंगल मे मंगल होता था,
सारे पशु- पक्षी मे स्नेह लहराता था,
आमो की अमराई होती थी,
सावन मे वसुंधरा की तरुणाई होती थी,
तरुवर सजते थे फूल और फल से,
खिली खिली प्रकृति की मुस्कान होती थी,
चिडिया रानी घोसला बनाती,
बंदर मामा डाली- डाली कूदा करते,
उपवन मे स्वर्ग का नंदनवन था,
जंगल देवता भी वनराइ से भरमाते थे,
एक बंदर भटक कर शहर की राह गया,
सरकस वालों ने सालों उसको खूब नचाया,
पर, दिल के कोने मे नंदन वन ना भुला था,
हर शाम घास को अपने तरु की
डाली समझा करता था,
सर्कस के तम्बू को ही उपवन समझा करता,
उसको उसका नंदनवन बहुत याद आता था,
वक़्त चला कुछ ऐसी चाल,
बंदर छूटा,
ईश्वर को दुआएं देता सरपट भागा,
दिल मे अरमान नंदन वन का जागा,
पर भटकता ही रहा,
जंगल सारे कटे हुए थे,
जिस तरु डाली को सपनो मे देखा करता था,
उस तरुवर की छाया सदा सदा के लिए लुट गई,
अब ना ही उपवन, ना ही नंदनवन,
अति आहत बुढा बंदर,
हो गया चिर निद्रा मे लीन,
सिसकती रही वसुंधरा अपने हालात पर,
उससे भी ज्यादा वन्य जीव के प्राण अर्पण पर......