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Shubhra Varshney

Abstract

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Shubhra Varshney

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वक्त की रफ्तार

वक्त की रफ्तार

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अपने अहम में जो भी फूला,

वह मिट कर खाक हो गया।

वक्त की रफ्तार से,

हर कोई इतिहास हो गया।


घर थे और बने थे दरवाजे हर ओर,

शोर था कि सजे है ओहदे घनघोर।

तलाशा था बहुत जुनून से,

पर हर नाम तो जैसे बेनूर हो गया।


सरों पर सजते ताज थे,

कदमों में फूल सजाते थे सेज।

मुट्ठी में जब बंद हुई रोशनी,

वक्त के साथ अंधेरा हो गया।


थे लकदक रोशनी से,

संपन्नता लिए भवन महल व बाजार।

पृथ्वी की विशाल करवट से,

तो द़फन सारा शहर ही हो गया।


न्यारा है खेल इतिहास का,

सदा लिए है नए चमत्कार।

क्या है संभव क्या असंभव,

इसमें तो मतभेद हो गया।


रहेगी शताब्दियों तक यह दुनिया,

मिल जाएगा हमें अमृत्व।

ना बदलेगा समय किसी का,

यह तो सारा वहम हो गया।


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