उस पार
उस पार
धरा पर पैर रख क्यों
आसमान को ताकता है
स्वयं को तो परख ले तू
गैर की गिरेबाँ में झांकता है।
गर जाना ही है तुझे
फलक के उस पार
भर जोश तेरे शोणित में
क्यूँ खुद को कम आंकता है।
यह राहें है कंटक भरी
खुशबू सा इसे महकने दे
चल अटल निश्चय से तू
उपवन सा इसे चहकने दे।
तेरे लहू में है वो रवानी
उफान में है तेरी जवानी
चल उस पथ पर अब
मंज़िल ही तो है कहानी ।
धर्म-कर्म रीत सब भूल
तू लगा धरा को बांटने
कौन सही दिशा दे तुझे
भेद की खाई पाटने में।
तू चल पथ पर बस नेकी से
ना भूल कर्म देखा देखी से
गर तुझे आसमां नापना है
स्वयं को कम नही आंकना है ।।