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उर बसी प्रीत

उर बसी प्रीत

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थी मेरी चाहत की सीमा कितनी लघु संगीन

तेरे एक कदम की इंगित से विराट बनी मनमीत.! 


मूक वीणा सी मौन प्रीत बह रही थी आँगन उर,

निर्वाण किया तेरी एक नज़र ने बज उठी प्रीत सस्मित.! 


सीमा हीन शून्य में मंड़राती अभिलाषा निज मन में,

तुमसे प्रीत जगते ही हुई प्रतिबिम्ब मेरी मनसा.! 


आँसू भरी अमिट लकीरें पड़ी हुई थी आँचल में,

प्रेमसभर एक छुअन तेरी जीवित कर गई सहसा.! 


लिख दी मैंने आसमान के पथ पर सपनों की बातें,

इनको मिटा ना पाएगी ओस के आँसू से रातें.! 


नैन पसारे राह निहारूँ पल-पल प्रियतम तुझको पुकारूँ

साँस अधीर और उतावली है हर धड़कन की तान।


सजल आँख में इंतज़ार की लिए एक प्रेमिल आस।


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