उल्फत के फसाने
उल्फत के फसाने
एक पुकार
अकसर
मेरे तुम्हारे बीच होती है,
जिसे जाने अनजाने
या
बेवजह क्यों
तुम अनसुना करती हो,
जो खाईयां दरमियान बढ़ने लगी
हमारे तुम्हारे बीच
निरंतर,
अब ये गहरी
बहुत गहरी होती जा रही हैं,
और शायद
तुम तक
पहुंचने से पहले
मेरे दिल की तड़प
उसी में समा रही है,
तुम मूक दर्शक
बन बस देखती हो
इन गहरे होते फासलों को,
बिन कहे
नजरों को खुद के
फेर लेती हो,
माना प्रेम
पतझड़ बन सूख गया
तुम्हारा
बेशक,
पर प्रेम की शाखाओं में
मेरे अब भी
मासूम नन्ही कोपलें खिली हैं,
ये मासूम दिल
डरा सहमा
तुम्हारे नफरतों
के अंगारों में
जल कर,
असंख्य दर्द से भरा
निस्तेज है,
मेरी कलम बस लिखती है
उल्फत के फसाने
जिसका खुद
कोई वजूद नहीं।