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Uma Bali

Abstract Inspirational

4.6  

Uma Bali

Abstract Inspirational

उलझन

उलझन

1 min
250


इस बार मौसम ठहरा सा है

हवाओं पर जैसे पहरा सा है


लुका छिपी खेल रही है धूप भी

बादल भी जैसे बहरा सा है


पर्वत भी लगे हैं कुछ कुछ बोलने

इक इक पत्थर जैसे सह रहा सा है


तोड़ रहा है सीमाएँ नदियों का अल्हड़पन

किनारों का दर्द बन आंसू बह रहा सा है


कलियाँ व्याकुल हैं फूल बन निखरने को

किन्तु धरा का दर्द कुछ गहरा सा है


कर्म कहानी या अपनी बदगुमानी

दुविधा में हरेक चेहरा सा है


अपने ही जाल में फँस चुका है इंसा

माया जाल उसका जैसे ढह रहा सा है


सस्ती हो रही मानव की हस्ती

आशा का दरिया अंदर कहीं बह रहा सा है


वक़्त है सँभाल ले या संभल जाए 

हर गुजरता हुआ पल कुछ कह रहा सा है



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