उलझन
उलझन
इस बार मौसम ठहरा सा है
हवाओं पर जैसे पहरा सा है
लुका छिपी खेल रही है धूप भी
बादल भी जैसे बहरा सा है
पर्वत भी लगे हैं कुछ कुछ बोलने
इक इक पत्थर जैसे सह रहा सा है
तोड़ रहा है सीमाएँ नदियों का अल्हड़पन
किनारों का दर्द बन आंसू बह रहा सा है
कलियाँ व्याकुल हैं फूल बन निखरने को
किन्तु धरा का दर्द कुछ गहरा सा है
कर्म कहानी या अपनी बदगुमानी
दुविधा में हरेक चेहरा सा है
अपने ही जाल में फँस चुका है इंसा
माया जाल उसका जैसे ढह रहा सा है
सस्ती हो रही मानव की हस्ती
आशा का दरिया अंदर कहीं बह रहा सा है
वक़्त है सँभाल ले या संभल जाए
हर गुजरता हुआ पल कुछ कह रहा सा है