तुम...
तुम...
सुनो न,
कैसे कहूँ,
सब कुछ अजीब सा लग रहा हैं,
तुम .. हाँ तुम
न जाने कैसे इतने अपने से बन गए,
सुबह जगने पर तुम ही आते हो खयालों में,
रात को सोना भी तुम्हें ही सोचकर,
अजीब झनझनाहट सी होने लगी हैं मन में,
हजारों दफा तो सोच लिया,
के अब के तुम्हें नहीं सोचना हैं,
फिर भी तुम ही हो.. जो जाते ही नहीं कहीं दूर मुझसे,
लिखना तो जैसे मैंने छोड़ ही दिया था,
फिर जहन में बस रहें हो नये अल्फाजों से,
मेरी कल्पना हो,
या तुम्हारी ही कोई दुआ उस रब से,
जो हम करीब ना होकर भी,
आस -पास हैं एक दूसरे के,
अब सिर्फ तुम्हारा एहसास हैं,
एक अदृश्य सा मंद महकता स्पर्श हैं,
जो ले जा रहा हैं मुझे उन दुखों से दूर,
जो कभी बहुत रूलाते थे,
क्यूँ कि ... हँसना जो सीखा रहीं तुम्हारी बेगुनाह आँखें..
डर लगता हैं,
खो ना दूँ तुम्हें... इस नकाबी दुनिया में,
लड़खड़ा जाऊँ .. या फिर गिर ही जाऊँ मैं,
उस से पहले तुम,
कस के भर लो मुझे अपनी बांहों में ,
एक दुआ बनकर बस जाओ ...
मेरी आखरी साँस की वो आखरी गूँज बनकर...