तुम निष्ठुर निर्मम पत्थर
तुम निष्ठुर निर्मम पत्थर
पत्थर को भी पीर पता है, वह भी रोता है अक्सर ।
फिर तुम ऐसा क्यों कहते हो, तुम निष्ठुर निर्मम पत्थर ।।
जिस पत्थर को ठोकर दी है, बस दुनिया के लोगों ने ।
उस पत्थर ने सहनशीलता, को अपनाया है हँसकर ।।
जिसने मिट्टी को भी अपने, तन का आभूषण माना ।
उस पत्थर को पूज रहे हैं, आज लोग मन्दिर लाकर ।।
जिसने सबकी खुशियों को ही, अपना जीवन व्रत माना ।
वह भी सिसक सिसक कर रोया, जग की करुणावस्था पर ।।
तुने कब सम्मान विसारा, तू कब किससे हारा है ।
कितने ही तूफान व्यथित हैं, अपनी दीन अवस्था पर ।।
नमन तुम्हे हिमशिखर जगत में, सदा अडिग अविचल रहना ।
और मझे जीवन पथ देना, ऐसे सुंदर व्रत देकर ।।