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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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5.0  

राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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तुम निष्ठुर निर्मम पत्थर

तुम निष्ठुर निर्मम पत्थर

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पत्थर को भी पीर पता है, वह भी रोता है अक्सर ।

फिर तुम ऐसा क्यों कहते हो, तुम निष्ठुर निर्मम पत्थर ।।


जिस पत्थर को ठोकर दी है, बस दुनिया के लोगों ने ।

उस पत्थर ने सहनशीलता, को अपनाया है हँसकर ।।


जिसने मिट्टी को भी अपने, तन का आभूषण माना ।

उस पत्थर को पूज रहे हैं, आज लोग मन्दिर लाकर ।।


जिसने सबकी खुशियों को ही, अपना जीवन व्रत माना ।

वह भी सिसक सिसक कर रोया, जग की करुणावस्था पर ।।


तुने कब सम्मान विसारा, तू कब किससे हारा है ।

कितने ही तूफान व्यथित हैं, अपनी दीन अवस्था पर ।।


नमन तुम्हे हिमशिखर जगत में, सदा अडिग अविचल रहना ।

और मझे जीवन पथ देना, ऐसे सुंदर व्रत देकर ।।


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