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Akhtar Ali Shah

Abstract

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Akhtar Ali Shah

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तुम मेरी तन्हाई की साथी

तुम मेरी तन्हाई की साथी

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शुक्र सौ सौ बार करता, हूँ तुम्हारा इसलिए

तुम मेरी तन्हाई की साथी, मेरी हमदर्द हो


तुम मेरी फुर्सत में, मेरे साथ रहती हमकदम

गर नहीं एहसान मानूं, तो कहाऊंगा अधम

भीड़ में जबजब भी,मैं तन्हा हुआ हूँ जानेमन

तुमने आकर के संभाला, है मुझे मेरे सनम


सोच में मेरे तुम्हीं, दिन रात हो आठों पहर

मैं बीमारे इश्क हूँ, और तुम दवाऐ दर्द हो

शुक्र सो सो बार करता हूँ तुम्हारा इसलिए

तुम मेरी तन्हाई की साथी मेरी हमदर्द हो 


जो नहीं दिल प्रीत से आबाद, वो शैतां का घर

वो कभी हो ही नहीं सकता, है लोगों मौतबर

जिस जगह मोके तरक्की के नहीं मिलते कभी

लोग जाते छोड़कर, वीरान होता वो शहर


प्रीत से लबरेज करके, दिल मेरा साबित किया

तुम जरूरत जिंदगी की, मेरी ऐ बेदर्द हो

शुक्र सौ सौ बार करता हूँ तुम्हारा इसलिए

तुम मेरी तन्हाई की साथी मेरी हमदर्द हो  


बीत जाते दिन मगर, रातों का ये लंबा सफर

खत्म होता ही नहीं, अंगारों पे होता गुजर

नींद बैरन रूठ जाती, ख्वाब हो जाते हवा

आंखों ही आँखों में, कटती रात हो जाती शहर


याद तेरी उस समय,आती तो लगता है यही

तुम हवा का गर्मियों में, एक झोंका सर्द हो

शुक्र सौ सौ बार करता हूँ अदा मैं इसलिए

तुम मेरी तन्हाई की साथी मेरी हमदर्द हो।


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