तहरीर
तहरीर
सोचती हूंँ कि मैं इस तहरीर पर क्या लिखूंँ,
बीता हुआ कल लिखूंँ या आने वाले सपनों को संजोऊँ।
अपनी भावनाओं को संभाल कर रखू,
या सब के लिए एक खुली किताब बन जाऊँ।
जिंदगी का कारवांँ तो गुजरता ही चला जा रहा है,
क्या छोड़ू या क्या समेटूँ।
अश्कों से यदि लिखती हूंँ,
तो सब धुंधला और अजीब सा दिखाई देगा।
फूलों से अल्फ़ाज़ लिखूंँ
तो खुशबू सी महकने लगेगी।
या फिर उस स्याही से लिखूँ जो लिखते लिखते ही,
अल्फाज को अपने में समेट कर रख गुम हो जाती है।
इसी उधेड़बुन में कब से,
मैं अपने जज्बातों को समेट कर बैठी हूंँ।
डर है यदि मैं लिखना शुरू करूंँ,
तो कहीं हवा के झोंके से वह पन्ना न पलट जाए।
बड़ी असमन्जस में हूँ,
कहीं अफसाना ना बन जाएं।