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Archana Saxena

Abstract

4.5  

Archana Saxena

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स्वयं से मुलाकात

स्वयं से मुलाकात

2 mins
250


आज अचानक खुद से मुलाकात जो हुई

बमुश्किल पहचान सकी फिर बात भी हुई

पहले हुई थी हैरान, ये कौन मेरे जैसा

फिर भी तो कुछ अलग है

अहसास है ये कैसा


जब पूछा मैंने नाम उसने आत्मा बताया

मेरे शरीर को ही था अपना घर बताया

ओह मैं कैसे नहीं पहचान सकी

परत दर परत धूल जो थी चढ़ी


आई थी मेरी आत्मा मेरे तन के साथ जग में

ईश्वर ने खुद था भेजा निश्छल से मन के संग में

ज्यों ज्यों बड़ी हुई मैं भारी भी मैं हुई थी

पर वो बेचारी मेरे ही बोझ से दबी थी

कभी बोझ मन पे छल का, कभी कपट भी था मन का


कभी झूठ से जुड़ी मैं

कभी गर्व सुंदर तन का

कभी मद में मैं थी झूली

कभी लोभी भी हुई थी

थे सारे बोझ भाये बस आत्मा को भूली


उस पल समझ में आया मेरे पास जो महल है

होंगी जहां की खुशियाँ पर जीना कब सहल है?

ईश्वर ने देकर भेजा आत्मा को एक घर था

मैंने बसाया धीरे धीरे पूरा इक शहर था

इतनी बुराइयों का प्रदूषण वहाँ फैलाया


कैसे वो सांस लेगी ये क्यों समझ न आया

जब घुटन बढ़ी अन्दर मेरे सामने वह आई

अब भी सम्हल जा पगली चेताने चली आई

पीछे तो छूटेगा ही बेशक ये सुंदर तन है


फिर क्यों न सँवारा गया जो इसमें भोला मन है

क्या क्या न गंदगी भरी तूने बड़े जतन से

मेरे लिए तो सोचती चाहे ऊपरी ही मन से

मेरा तो क्या है पा ही लूँगी दूजा कोई घर

पर छूटना है पीछे तेरे साथ ये नगर


ओह कैसा सच का आईना दिखा गई मुझे

अब शुद्धिकरण होगा मैं सँवारूंगी तुझे।     


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