स्वदेश
स्वदेश
गाती कोयल डाल डाल पर गीत स्वदेश के,
गीत किसान के गीत राही के,
सुना रही हैं कोयल किस्से बीते,
पन्ने पलट रही हो मानो पन्ने इतिहास के,
कोई राग है उसने छेड़ा,
मानो बंसी की धुन पर रास था खेला,
डाल डाल पर राग पिरोती,
अपनी धुन में मनमौजी फिरती,
उसके गीत के शब्दों में थी संस्कृति मेरे हिंद की,
मोती मोती वो जब गाती लगती स्वर धनी संगीत की,
मैं ठहरा और सुनता रहा,
वो ठहरी नही कंठ उसका गूंजता रहा,
नदी, पर्वत, झील और सागर हर एक का ज़िक्र था,
उसके गीत में पुलकित इस धरा का कण कण था,
गीत कभी उसका भजन लगे श्रीधाम का,
कभी गीत लगे उसका स्वर पहली अजान का,
उठी थी हूक उसके हृदय में राष्ट्रवाद की,
चोंच में उसने दाबी हैं कहानियां हिंद के इतिहास की,
मैं करू नमन अब धीरज धर के,
यहीं गुजारूं उम्र मैं सारी तोड़ के नाते जग से,
मेरी माटी को हाथों में लेकर माथे का तिलक बना लूं,
मैं झील झील सा होकर सागर खुद में ही बना लूं,
कोयल को गाने दूं इसकी अंतिम स्वास तक,
ना रोक कोई ना बंदिश ये गीत रहे अनंत तक।