सुराही में छेद
सुराही में छेद
मेरे गांव में एक कुम्हार,
जिसकी सुंदर सुराही बिक रही थी
और हम जान रहे हैं यार ।
मानो स्वयं ईश्वर ने रचा हो उसका मुख,
पतली गला; शमशीर सा नैनो की धार ।।
मधुशाला की प्याला सी,
सुराही का पानी लगे ।
चढ़ गई जिसको एक बार,
वे घर के चक्कर काटने लगे ।।
प्रेम का प्याला रुपयों में बिक रही थी,
चुपके-चुपके ना जाने क्यूं ?
समृद्धि संपन्न थी पर बिन पिता के,
उसकी मां भी शामिल थी ना जाने क्यूं ?
मैंने सुना था उनकी प्रशंसा,
औरों के मुख से ।
नई नई कारीगरी थी,
मैंने भी औरों के नैनों से
देखी कारीगरी कुछ नुक्से ।।
चल रहा था पता,
सब को उनका भेद ।
ईश्वर की सुंदर सुराही में
पड़ चुका था छेद ।।