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Deepak Shrivastava

Romance

4  

Deepak Shrivastava

Romance

सुहागन का श्रंगार

सुहागन का श्रंगार

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303


सुहागन करे श्रंगार जब वो 

 लगे जैसे पूर्णिमा का चाँद

बादलों मैं चमकता हो

काले घूँघराले केशों के बीच

मुखड़ा घूँघट मैं यूँ दमकता हो


कहते सोलह श्रंगार जिसे

यूँ ही सजाती हे अपने को वो

उबटन लगाती हे वो 

मल मल के नहाती हे वो

दर्पण के सामने शर्माती हे वो


जब देखती हे अक्ष अपना वो

मांग भरती, बिंदी लगाती

इतराती हे वो 

केशों को सवारती सकूँचाती हे वो

घूँघराले लम्बे केशो का जुडा बनाती हे वो


जुड़े मैं जूही के फूलों का

गजरा लगाती हे वो 

घाघरा,कंचुकी, चुनरी मैं

अपने को सजाति हे वो

बैदा मांग में,नाक मैं नथनी गले मैं

नौलखा, कानों मैं कुण्डल पहनती हे वो


पाँव मैं पायल करधनी कमर

 मैं लगाती हे वो

  छम छम करती 

नागिन की तरह सो सो

 बल खाती हुई घुंघट मैं

शर्माती, सकूँचाती, इठलाती, लजाती

पिया मिलन को जाती हे वो

पिया मिलन को जाती हे वो।


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