स्तब्ध
स्तब्ध
स्तब्ध हैं हम
पर स्तब्धता में नहीं
क्योंकि ये अपने आप मे कुछ नहीं
मुझ में भर है
और अब तो आनन्द में भी हैं हम।
पर यकीनन
आँधियाँ चल ही रही हैं
शोर बढ़ ही रहा है
लहरें उठ ही रही हैं।
अंधेरा जरूर उदास है
और चिंतामग्न भी कि
सूरज पर उसका
डाला हुआ पर्दा
जल रहा है
और उसके जलने से
ये जो धुआँ हुआ है
वो भी उड़ता हुआ जा रहा है
जाहिर है
रौशनी होनी है
और स्तब्धता की एक
नयी कहानी
आम होनी है।