सरपरस्त
सरपरस्त
सरपरस्त यूँ भी न था कोई
सरपरस्त अब भी न है,
दयानतदारी थी खुद से,
दयानतदारी से सीखता रहा।
माँ से बोली सीखी बाबा से चलना सीखा,
देखना मुझ पर छोड़ दिया।
जीने का ढंग और सोचने का सलीका
दुनिया ने सीखा दिया।
अपनी ही तारीफ़, जो किया करते ते थे,
उनसे सीखा खुदको बेचना।
पर जिसने हुनर तराशा मेरा,
उस जुलाहे का मैं आज भी शुक्रगुज़ार हूँ के,
उसने सिखाई मुझे बुनाई।
तागों से करता था, मौसिकी बुनाई की
और बनाता था एक बेशक़ीमती कपड़ा।
मैंने भी उसे देख कर सीख लिया होना बुनाई का,
और अब मैं एक क़ातिब हूँ।
लफ़्ज़ों की बुनाई करता हूँ।
ये सारे मुर्शिद हैं मेरे, ताउम्र इनका शागिर्द रहूँगा,
सरपरस्त फिर भी अपना,
मैं खुद ही रहूँगा।