सफर मेरा
सफर मेरा
सफर मेरा चलता चला जा रहा
मंज़िल का मेरे कोई पता न रहा
जबसे ढूंढी है मैंने मंज़िल अपनी
हर एक शख्स मुझसे छूटता जा रहा
सफर मेरा..
तमन्ना हमारी फिर से रूबरू हुई
हर एक कठिनाई का सामना करता रहा
जिंदगी में कई नई कड़ियाँ जुड़ती गई
कुछ कड़ियाँ नरम सी टूटती चली
हर एक शख्स अपना, अपना होने लगा
हर पराया अपना होके पराया होता जा रहा
सफर मेरा..
अब मेरे मन के उमंगों की सीमा न रही
हर एक काम को अंजाम मैं देता रहा
सोचता हूँ उस सफर के बारे में जब
था वो अच्छा या फिर था वो बुरा
जबसे सोचा नये सफर के बारे में
हर पुराना सफर आँखों से
ओझल होता जा रहा
सफर मेरा...
पुराने सफर में जो मेरी मंज़िल थी
उसे न फ़िक्र मेरी थी न मेरी मोहब्बत की
तो ये 'सफरी विवेक' अपने सफर को
ही बदलता चला जा रहा
सफर मेरा......