सजाएं हर दिवसवार
सजाएं हर दिवसवार


होकर अधीर आदमी, चित्त संतुलन खोए
भांति अग्नि दहक उठे, ज्ञान विस्मृत होए
आतुर हैं असुर भय अपि, दुष्ट असत् कुविचार
करने को प्रलय जगत, यत्न हो सौ हजार।
क्रोध के उच्च कोटि से, जब शान्ति ढुलक जाए
नीचे तल पे आ गिरे, खुद को धुमिल पाए।
बड़ी से बड़ी बात का, मिले ना कोई हल
धीरज रखो तुम अब को, बेहतर होगा कल।
लो सबक यह जरूर एक, वचन कहो तुम मधुर
प्रयोग कभी अपशब्द का, ना करो ओ चातुर।
आतंक का अब अंत हो, जन जन कहे उद्धार
शान्ति हो व्यवहार में, महक उठे संसार।
करें प्रण मन में अटल, जागे इंसानियत
चलें सुदूर कुकर्म से, भागे हैवानियत।
क्यों करें उत्सव एक दिन, रोजाना हो विचार
वाणी पर संयम धरें, सजाएं हर दिवसवार।