सजा-ए-इश्क़
सजा-ए-इश्क़
1 min
171
सजा-ए-इश्क़ में ऐसा ज़ख्म खाया मैंने,
ख़्वाहिश-ए-वस्ल में शब-ए-हिज़्रा पाया मैंने।
बेरंग सी ज़िंदगी को रंगों से सजाया था जो,
मुकरा इकरार करके पर वादा निभाया मैंने।
झूठा दिलासा देने हमदर्द बन के था जो आया,
उस की बातों में आकर खुद को सताया मैंने।
बह के जज़्बातों में लगा बैठे दिल बेदर्दी से,
और दिल को तन्हाई का घर ख़ुद बनाया मैंने।
चला गया वो मारकर 'ज़ोया' पे धोखे का खंजर,
अपनी मोहब्बत के जनाजे को ख़ुद उठाया मैंने।
9th April / Poem15