श्रीमद्भागवत -२८८ः यदुवंश को ऋषियों का शाप
श्रीमद्भागवत -२८८ः यदुवंश को ऋषियों का शाप
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
श्री कृष्ण और बलराम जी ने
बहुत से दैत्यों का संहार किया
साथ मिलकर यदुवंशियों के ।
कौरव पांडवों के युद्ध में
पृथ्वी का बहुत सा भार उतार दिया
ये सब हो जाने के बाद फिर
श्री कृष्ण ने ये विचार किया ।
कि लोक दृष्टि से इस पृथ्वी का
भार तो दूर हो गया
परंतु मेरी दृष्टि से अभी तक
ये भार दूर नही हुआ ।
क्योंकि यदुवंशी अभी तक
विद्यामान हैं इस पृथ्वी पर
विजय प्राप्त नही कर सकता
अभी तक कोई भी जिन पर ।
यह यदुवंश मेरे आश्रित हैं
अपने वैभव से उच्छ्रींख़ल हो रहा
परस्पर कलह करा इस यदुवंश में
अपने धाम फिर मैं जाऊँगा ।
भगवान तो सर्वशक्तिमान,सत्यसंकल्प हैं
इस प्रकार निश्चय कर मन में
संहार कर डाला अपने ही वंश का
शाप दिला उनको ब्राह्मणों से ।
उन सबको समेट कर फिर
वो अपने धाम ले गए
त्रिलोकि का सौंदर्य भी फीका है
भगवान की उस मूर्ति के सामने ।
सौंदर्य माधुरी से अपने
सबको आकर्षित कर लिया उन्होंने
उन्ही की सेवा में लग गए वो, जिन्होंने
चरणचिन्हों का दर्शन कर लिया उनके ।
अपनी कीर्ति का पृथ्वी पर
विस्तार किया उन्होंने ताकि
इसका गान, श्रवण, स्मरण कर
अज्ञान से पार हो जाएँ लोग सभी ।
इसके बाद भगवान कृष्ण ने
प्रस्थान किया अपने धाम को
राजा परीक्षित ने पूछा, भगवन
ब्राह्मणों ने शाप क्यों दिया यदुवंश को ।
यदुवंशी तो ब्राह्मण भक्त थे
और बड़ी उदारता थी उनमें
कुलवृद्धों की सेवा करने वाले
चित भगवान में सदा लगा रहे ।
ब्राह्मणों का अपमान फिर उनसे
कैसे हुआ, और ब्राह्मणों ने
उनके कुल को शाप कैसे दिया
ये सब आप मुझे बतलाइए ।
श्री शुकदेव जी कहते हैं कि
भगवान कृष्ण के शरीर में
सम्पूर्ण सुंदर पदार्थों का
सन्निवेश था उनमें जैसे कि ।
नेत्रों में मृगनयन और
कंधों में सिंहस्कन्ध था
करों में क़रि - क़र और
चरणों में विन्यास था कमल आदि का ।
मंगलकारी, कल्याणकारी कर्मों का
उन्होंने आचरण कर पृथ्वी पर
अपनी कीर्ति की स्थापना की
अपने द्वारका धाम में रहकर ।
अन्त में श्री हरि ने अपने
कुल के संहार की इच्छा
क्योंकि पृथ्वी का भार उतारने को
शेष रह गया था वंश ये ही ।
श्री कृष्ण अब द्वारका पुरी में
कालरूप में ही निवास कर रहे
इसी इच्छा से ही कि वे
यादवों का संहार कर सकें ।
उनके वहाँ रहने पर उसी समय
विश्वामित्र, भृगु, दुर्वासाआदि
बड़े बड़े ऋषि पिंडारक्षेत्र में
निवास कर रहे द्वारका के पास ही ।
कुछ उद्दण्ड कुमार यदुवंश के
एक दिन ऋषियों के पास जा निकले
बनावटी नम्रता से उन्हें
प्रश्न किया, प्रणाम कर चरणों में ।
जामवंतीनन्दन साम्ब को
स्त्री वेश में बनाकर ले गए
कहने लगे “ ये गर्भवती
कुछ पूछना चाहती आपसे ।
सवाल पूछने में सकुचाती
अमोघ, अबाध ज्ञान है आपका
इसके प्रसव का समय निकट है
पुत्र की इसे बड़ी लालसा “ ।
आप लोग बतलाइए कि ये स्त्री
जनेगी कन्या या पुत्र को
धोखा देना चाहा था
उस कुमारी ने जब ऋषि मुनियों को ।
तब भगवान की प्रेरणा से ही
सब ऋषि मुनि क्रोधित हो बोले
“ तुम्हारे कुल का नाश करे जो
ऐसा मूसल पैदा करेगी ये “ ।
यह बात सुनकर मुनियों की
बहुत डर गए बालक वो
निकला एक लोहे का मूसल
साम्ब का पेट खोलकर देखा तो ।
अब तो सब पछताने लगे
कहने लगे कि हम लोगों ने
ये क्या अनर्थ कर डाला
अब लोग हमें क्या कहेंगे ।
घबराकर वे और मूसल लेकर
यादवों की सभा में पहुँच गए
मूसल को वहाँपर रख दिया
सारी घटना कही राजा से ।
ऋषियों के शाप की बात सुनी जब
और उस मूसल को देखा
विस्मित, भयभीत हो सोचें सब
कि ऋषियों का शाप तो झूठ नही होता ।
चूरा चूरा करवा डाला था
अग्रसेन ने उस मूसल का
बचे हुए छोटे टुकड़े को
समुंदर में फिंकवा डाला था ।
इस सम्बंध में उन्होंने
श्री कृष्ण से कोई सलाह नही ली
परीक्षित, भगवान ऐसा ही थे चाहते
ऐसी ही उनकी प्रेरणा थी ।
एक मछली निगल गयी थी
लोहे के उस छोटे टुकड़े को
और समुंदर के किनारे आ लगा
तरंगों में बहकर मूसल का चूरा वो ।
थोड़े ही दिनों में वो चूरा
घास के रूप में उग आया था
और उस मछली को एक
मछुआरे ने पकड़ लिया था ।
लोहे का टुकड़ा जो पेट में उसके
ज़रा नामक व्याध ने उसको
अपने वाण की नोक में लगा लिया
कृष्ण की ही प्रेरणा, ये सब हुआ जो ।
वे इस शाप को उलट सकते थे
फिर भी ये उचित ना समझा उन्होंने
ब्राह्मणों के शाप का अनुमोदन ही
कालरूपधारी कृष्ण ने किया ।