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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२०९;अघासुर का उद्धार

श्रीमद्भागवत -२०९;अघासुर का उद्धार

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परीक्षित, श्यामसुंदर एक दिन 

ग्वालवालों और बछड़ों के साथ में 

आपस में खेलते खेलते 

ब्रजमंडल से निकल पड़े वे। 


कोई बांसुरी था बजा रहा 

कोई सिंगी फूँक रहा था 

हंसी ठठ्ठा करते जा रहे 

नाच रहा कोई, कोई गा रहा। 


बहुत जन्मों के कष्ट उठाकर 

जिन्होंने अन्तकरण को किया वश में 

उन योगियों के लिए भी अप्राप्य है 

चरणकमलों की रज, कृष्ण के। 


वही भगवान् ग्वालवालों के सामने 

रहकर खेल खेलते जा रहे 

उनके सौभाग्य की महिमा 

इससे अधिक क्या कही जाये। 


परीक्षित, अघासुर नाम का दैत्य 

वहां आया, उसने देखा ये 

कृष्ण, ग्वालों की सुखमय क्रीड़ा 

देखि न गयी थी उससे। 


वह इतना भयंकर था कि 

देवता जो अमर हो गए थे 

उससे जीवन की रक्षा के लिए 

चिंतित रहा करते थे वे। 


इस बात की बाट देखते कि 

कब इसकी मृत्यु हो जाये 

पूतना, बकासुर का भाई अघासुर 

कंस ने ही भेजा था उसे। 


कृष्ण, ग्वालों को देख सोचे वो 

मेरे बड़े भाई को मारने वाला ये 

मैं आज इसको मार डालूँगा 

ग्वालवालों के साथ में। 


इनकी मृत्यु से व्रजवासी सारे 

अपने आप ही मर जायेंगे 

क्योंकि संतान ही प्राणियों के प्राण हैं 

प्राण न रहे तो शरीर कैसे रहे। 


ऐसा निश्चय कर वो अजगर का 

रूप धारण कर मार्ग में लेट गया 

उसका शरीर एक योजन लम्बा और 

पर्वत समान मोटा, विशाल था। 


गुफा के समान अपना मुँह फाड़ा 

जबड़े कंदराओं के समान थे 

दाढ़ें पर्वत के शिखर सी लगें 

घोर अन्धकार था उसके मुँह में। 


जीभ एक चोडी लाल सड़क सी 

सांस आंधी के समान थी 

आँखें दावानल के समान 

दहक रहीं वो, बड़ी बड़ी सी। 


बालक जो छुपकर उसे देख रहे 

खेल खेल में ये कहने लगे 

अजगर के समान खुला मुँह इसका 

कुछ कहें, हमें निगल न जाये। 


उसकी असलियत न जानकर 

हंसी में ये सब बात कह रहे 

बछड़ों के साथ ग्वालवाल फिर 

अघासुर के मुँह में घुस गए। 


उन अनजान बालकों की बात को 

सुनकर भगवान् कृष्ण ने सोचा 

सच्चा सर्प भी झूठा लगे इन्हें 

तब उन्होंने ये निश्चय किया। 


अपने सखा ग्वालवालों को 

बचाना है उसके मुँह में जाने से 

इतने में ग्वालवाल और बछड़े सब 

चले गए अघासुर के पेट में। 


परन्तु अघासुर ने उन्हें निगला न था 

वाट देख रहा वो इस बात की 

भाई , बहन को मारने वाला कृष्ण 

मुँह में आये तो निगलूं उसे भी। 


कर्तव्य निश्चय करके कृष्ण स्वयं 

उसके मुँह में तब घुस गए 

बड़ी फूर्ति से बढ़ा लिया 

अपने शरीर को अत्यंत गति से। 


शरीर को इतना बड़ा कर दिया 

कि गला रूंध गया उसका 

आँखें उलट गयीं थी उसकी 

व्याकुल होकर छटपटाने लगा। 


अन्त में जब प्राण निकल गए 

उसी समय भगवान् मुकुंद ने 

मरे हुए ग्वालों, बछड़ों को 

जिला दिया अमृतमयी दृष्टि से। 


अघासुर के मुँह से निकाल लिया 

श्री कृष्ण ने उन सब को 

एक दिव्य ज्योति निकली अजगर से 

श्री कृष्ण में समा गयी वो। 


देवताओं ने फूलों की वर्षा की 

गान किया था गंधर्वों ने 

विद्याधरों ने बाजे बजाये 

स्तुति पाठ किया ब्राह्मणों ने। 


पार्षद सब जय जयकार करें 

मंगल ध्वनि सुनी जब ब्रह्मा जी ने 

आये वहां, महिमा देख कृष्ण की 

वह भी बड़े आश्चर्यचकित हुए। 


वृन्दावन में अजगर का चर्म ये 

सूखा तो बड़े दिनों तक वहां 

व्रजवासिओं के खेलने के लिए 

गुफा की तरह बना रहा। 


पांचवें वर्ष में की थी ये लीला 

ग्वालवालों ने उसे उसी समय देखा 

परन्तु छठे वर्ष में ही उन्होंने 

व्रज में इसका वर्णन किया। 


पाप अधासुर के सारे धुल गए 

स्पर्शमात्र से ही भगवान् के 

सारूप्य मुक्ति प्राप्त हुई 

उस पापी को कृष्ण कृपा से। 


सूत जी कहते हैं शौनक जी 

परीक्षित ने शुकदेव जी से प्रश्न किया 

क्योंकि भगवान् की लीला ने 

परीक्षित के चित को वश में था कर लिया। 


परीक्षित ने पूछा कि भगवन 

ये लीला हुई उनके पांचवें वर्ष में 

कहा आपने कि ग्वालवालों ने 

छठे वर्ष में बताया सबसे। 


एक समय की लीला दूसरे समय में 

वर्त्तमानातीत कैसे हो सकती 

मुझे बड़ा कोतूहल हो रहा 

मेरा भ्रम मिटा दीजिये आप ही। 


स्मरण हो आयी वो लीला 

शुकदेव जी को, और तब वे  

परीक्षित के प्रश्न का उत्तर देने को 

उस लीला का वर्णन करने लगे।


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