सहमते सवाल...
सहमते सवाल...
कभी मेरे आसपास ढेर सारे सवाल मँडराया करते थे...
लेकिन आज न जाने क्यों वे सारे सवाल कही खो गए है....
सवालों का यूँ खो जाना मेरे लिए बेहद फ़िक्र की बात थी....
क्योंकि वे सारे सवाल अब भीड़ में खो गये थे....
बेरोज़गारों की भीड़ जो धर्म के नाम पर हर वक़्त लड़ती रहती थी...
उस भीड़ को न अस्पताल की ज़रूरत थी और न स्कूल कॉलेज की....
शायद उन्हें बढ़ती महँगाई और कानून व्यवस्था का भी सरोकार नही था....
कहते है भीड़ का न कोई चेहरा होता हैऔर न ही कोई सवाल भी....
मैं अपने आसपास नज़रे दौड़ाने लगी उन सवालों के लिए जो कभी मुझे तंग करते थे....
लेकिन वे सारे सवाल तो जैसे ग़ायब हो गए थे...
उन्हें टीवी और अखबारों की दुनिया से भी ग़ायब कर दिया गया था...
कही ऐसा तो नही गये की वे सारे सवाल सहम गए हो?
कही ऐसा तो नही की वे सारे सवाल खामोश हो गये हो?
और खामोशी तो खामोशी है जो कभी सन्नाटे को भी चीर देती है....
उम्मीद पर दुनिया कायम है...क्या इन सवालों की खामोशी कभी सन्नाटे को चीर पाएंगी?
शायद हाँ... शायद नही....।