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Ritvik Mawkin

Abstract

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Ritvik Mawkin

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’साकार करूँ’

’साकार करूँ’

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एक छोटे सपने को क्यों ना मैं साकार करूँ

उसे आकर ना देकर क्यूँ मैं यूँ बेकार करूँ

चाहे अनचाहे उस समन्दर के 

साहिल को क्यों ना मैं पार करूँ

अनिछा के दामन में क्यों मैं

ख़ुद को स्वीकार करूँ 

प्रभु की इच्छा का पालन करके

क्यों मैं अपना धर्म बे ईमान करूँ 

अपनी जलन मिटाने के लिए

क्यों मैं अमृत हर बार चखूँ 

जो वादा किया अपनी परछाईं से

उसमें छुपकर सबके सपने साकार करूँ

बोया है जो बीज उसका क्यों ना मैं ख़याल करूँ

चुप्पी साध के क्यों ना मैं हाहाकार करूँ 

जो बीत गया सो बीत गया

ऊँगली ऊँची करके क्यों मैं रिश्ते बेकार करूँ

जाना है जिस मंज़िल तक

उस पर क्यों ना सीधा वार करूँ

रोका है ख़ुद को आज मैंने

इस इंतज़ार को क्यों ना मैं लाचार करूँ 


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