रूह
रूह
ऐ खुदा जुड़ जाते हैं जब तुझसे लगन के अदृश्य तार
देखा है नाचती रूहों को तेरी मस्ती में इस कदर बेशुमार
जहांँ का बंँधन ना हो तो रिवाजें तोड़ जाया करती हैं
मोहब्बत की राह में अक्सर मिसालें छोड़ जाया करती हैं
तेरी तिरछी अदा पर इस तरह मैं बहका हूंँ
हुआ तू मेहरबां मुझ पर तो इत्र की तरह महका हूंँ
दुआ है तेरा हुस्न मेरी जान सलामत रहे
याद करें यह जमाना
उस तलक़ सूफी कलाम की ज़मी पर कयामत रहे
खुद को भुला रूहें जब घुल जाया करती हैं तुझ संँग
प्रेम के धागे में बंँध हो जाया करती है वो पतंग
साँवरे इक झलक पाकर तेरी क्या से क्या कर जाती हैं
मीरा जैसी इश्क-ए-रुह तुझमें फ़ना हो जाया करती हैं।