रुठी रुठी सी
रुठी रुठी सी
वो मुझसे कुछ यूं रुठी रुठी है
बातें नही करती पर मिलती रहती है
होठों को ताले लगा आँखो से वो कहती है
शिकायतों का पुलिंदा बना रख जाती है
चैटिंग के पन्नों पर सब कह जाती है
सपनों मे वो आके, बस मुस्कुराती है
रोको तो वो पीठ दिखाती है
पलट पलट कर आगे जाती है
मासूम सा मुँह बना कर फिर इतराती है
ये कैसा अंदाज़ सनम का, क्यों उलझाती है
अपना बना कर भी अपनापन नही दिखाती है
उनकी यही अदा तो और और दीवाना बनाती है।