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Avinash Kumar

Abstract

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Avinash Kumar

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ऋषि और हम

ऋषि और हम

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हे ऋषि!

तुम गए-

असत् से सत् की ओर!

तम से ज्योति की ओर!

मृत्यु से अमृत की ओर!


हम गए -

सत् से असत् की ओर!

ज्योति से तम की ओर!

अमृत से मृत्यु की ओर!


तुम कितने असभ्य थे!

तुम कितने पौराणिक थे!

तुम कितने बर्बर थे, ऋषि!

तुम कितने अविकसित थे!


हम कितने सभ्य हैं!

देखो न- हवा ही जला डाली।

हम कितने सभ्य हैं!

प्यास बढ़ा ली, पानी सूखा डाला।

हम कितने नवीन हैं -

धरा खोद डाली, नाले पाट डाले।

हम कितने उदार हैं!

हमारा हर काम 'स्वान्तः सुखाय' है।

तुम्हारा हर काम 'परोपकाराय पुण्याय ' था।

हाँ, ऋषि !

हम विकसित हैं -

तुमने नदियों में (किनारे ) घर बनाये,

हमने नदियों पर (भर कर ) घर बनाये।


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