रिसते ज़ख़्म
रिसते ज़ख़्म
2122 2122 2122 212
कुछ पुराने ज़ख़्म अक्सर फिर से ताज़ा होते हैं,
दर्द बढ़ जाता है जब अपने किसी को खोते है।
होता मुश्किल है छुपाना, औ सुने कोई नहीं,
होंठों पे मुस्कान रखते, फिर अकेले रोते हैं।
ये अज़िय्यत में भी इतने उलझते रहते हैं सब
दिन तो ऐसे बीत जाए, रात में नहीं सोते हैं।
ज़ख़्म भरते तो नहीं पर उभरकर रिसते औ हैं,
बीती यादों का ज़हर दिल में भी वो फैलाते हैं।
स्याह तन्हा रातों में यादों की चिंगारी जले
और दुख बाद के ज़रा से झोंके से सुलग उठते हैं।
प्यार से आशिक़ है देता, कैसे मरहम भी मांगें
टूट जाता है ये मन औ दिल पे ज़ख़्म भी खाते हैं।
29th October 2021 / Poem 44