रौशनी
रौशनी
अनगिनत अनेकों दीपों ने
रौशनी का परचम लहरा दिया
अधेंरों की क्या बिसात रह
रोशनी ने उसको हरा दिया।
पूरी बस्तियां सज उठीं
नवेली दुल्हन की तरह
चौराहे चमचमा उठे
नये मनचलों की तरह।
अधेंरों की क्या औकात रही
आज रौशनी ने उसको हरा दिया
क्या दम था रोशनी के अन्दर
उसने अधेंरों का निशां मिटा दिया।
भूल गयीं रौशनी फिर
इक गरीब का आशियां
इक झलक भी न दिखायी उसको
तभी तो उसे रुला दिया।
अधेंरों का बन्दी आज भी रहा
उस गरीब का आशियां
तभी तो भेद किया रोशनी ने
उसके घर को भुला दिया
खुशियाँ क्या मनाता वो बदनसीब
दीवाली ने भी उसे रुला दिया।