रात बिना ख्वाब की
रात बिना ख्वाब की
आजकल
रातों को मैं कहती हूं
यह कहकर उन्हें सोती हूं कि
मुझे ख्वाब मत दिखाओ
एक भ्रम में मुझे मत रखो
ख्वाबों से दूर और
हकीकत के करीब रहने का
मुझे हुनर सिखाओ
ख्वाब देखो
उम्र भर देखते रहो
उनमें से एक भी पूरा न हो तो
दिल टूटता है
उसे चोट लगती है
इससे तो बेहतर है कि
इन्हें देखना ही बंद कर दिया जाये
रात भर ख्वाब देखने से
नींद भी पूरी नहीं होती
सुबह आंख भी देर से खुलती है
और दिन भर थकान रहती है
न ख्वाब होंगे
न ही फिर इन्हें पाने का या
खोने का ही कोई गम
होगा
बिना ख्वाबों की
नींद कितनी मस्त होगी
चैन की
पूरी होगी
भरपूर होगी
इसमें फिर न कोई
खालीपन होगा
कोई कमी होगी
ख्वाब अब तक जो मैंने देखे
तो वह यथार्थ के धरातल से
जुड़े ही देखे
उनसे परे नहीं
यह सोचकर कि यह तो कम से कम
आंख खुलने पर
पूरे हो ही जायेंगे
मसलन कि आज रात को मैं
अपने कमरे की खिड़की से बाहर
झांककर आसमान में चांद को देखूंगी
पर अफसोस कि जो चांद रोज
रात को आसमान में दिखता है
वह मैंने जो ख्वाब देखा और
इस चाहत को हकीकत में
पाना चाहा तो
उसी रात यह ख्वाब सच न
हो पाया
दिल से चाहा कि आज
मेरी उनसे मुलाकात हो जाये लेकिन
वह फिर जिंदगी भर मिल न पाया तो
चलो फिर छोड़ ही देते हैं
इस ख्वाबों की दुनिया को
जो मेरी हकीकत के सच को भी
बदल देती है
यह तो कम से कम मेरे हाथ में है
कि मैं रात को ख्वाब
देखना छोड़ दूं
हमेशा के लिए
जिंदगी भर
जो रात मिले
तो दुआ करूं कि
वह मिले बिना किसी
ख्वाब के।