पत्ते सा किसान
पत्ते सा किसान
आगे बढ़ रही मंजिल पाने की रूत
आकाश पाताल एक करने की धुन
गिरे पत्ते को क्या संभव है जोड़ पाना
भटकना उचित कितना है क्या ये जाना।
रहना है धूल मिट्टी में पत्ते को
मिलना है मिट्टी में पत्ते को
हरा रहना बहुत समय तक संभव नहीं
हरि कृपा बिन हरियाली संभव नहीं।
पत्ते पर भार है हल्का होते हुए भी
पर हल्के में लिये गये छलकते आंसू हैं
हल्का है वजन में पर भार तो है
ऐसे ही बिना उड़े मिट्टी में नहीं मिलता है।
पत्ते का पैदा होना क्या कम है
आसान नहीं है पत्ते का बनना
पत्ता, पत्ता नहीं ये पत्ता किसान है
गिरा है वो इसका स्वयं को आभास है।
वो गिरता पत्ते की तरह हमेशा
अपने काम में तत्पर रहता
अपने भार को स्वयं ढोता
भार में आभार किसी का नहीं होता।
हवा में उड़ता रहता जब तक
मिट्टी में मिल ना जाये तब तक
उसके भार में सुधार नहीं होता हैं
पत्ता है वो हल्का ही रहें तभी उड़ता हैं।
मन उड़ता है तन तड़पता है
भार दूसरों का अपने सिर रखता है
अपने भाव मन के
सदैव अपने मन में रखता है।
भार का आभास, भाव कम होने पर होता है
कम उपज पर भाव कम होता है
अभावों में भार बढ़ा पर भाव नहीं
दाम कम मिले पर मिला कोई काम नहीं।
भाव ना देखा उसका अभाव देखा
अभाव में भावनाओं का खेल देखा
समय था मानसून का
और चारों ओर मेघों को देखा।
एक बूंद ना बरसी चाहने पर
अभावों में नदी सूख गयी
कुएं स्वयं प्यासे हो गये
तालाब की नाराज़गी से
नहर ने अपना मुख फेर लिया
एक अभाव रहा जल का
बीते कल बिन जल के जो बीते
जिसके कारण उसे कल पर छोड़ दिया।
जल हो नम्रता का मन में
कल कभी उग्र नहीं होगा
उग्रता आये तो आये पर धूप सी हो
तभी तो मेघों से पसीना निकलेगा।
नम्रता जल है बारिश रूपी
ज्यादा बरसनी भी अच्छी नहीं
पर नहीं हो तो बहुत बुरा है
ज्यादा हो तो कम बुरा है।
ज्यादा से बाढ़ आकर रूक जायेगी
जो अगली साख की रुप रेखा बनायेंगी
ना होने पर कुछ नहीं होगा
जो पत्ता गिरा वो भी नहीं गिरेगा।