परोपकारी पेड़
परोपकारी पेड़
रहता हूँ हरदम खड़ा - ठड़ा ,
हरदम खुशियों से करता तुझे हरा - भरा।
कभी न मुझे आराम है भाता ,
सदा मैं परहित कर इतराती।
न माँगू तुमसे दाना और न हीं माँगू पानी
काम आती तेरी काम मेरी फल- फूल -शाखा -तना - जड़ और टहनी ।
फिर भी तुम मुझे क्यों समझते नहीं दानी ?
सर्दी- गर्मी और बरसात, झेलना पड़ता मुझे बेरियात।
एक पैर पर खड़ा रहता हूँ ,सब मुसीबत में अड़ा रहता हूँ।
फल -फूल से तुम्हें तृप्त कराता,
प्राणदायिनी आक्सीजन प्रदान कर तेरी जान की परवाह करता।
मरने पर भी मेरी अस्थियां जलावन के काम आता ,
फिर भी तुझे क्यों मुझपर तनिक भी रहम नहीं आता ,
कुल्हाड़ियों के मार से सहम जाता हूँ ,
मेरे भाई ! क्यों इतनी स्वार्थी हो गए मेरे भाई !
मैं भी तो उसी माँ की संतान हूँ ,कुछ तो करो तुम रहनुमाई।
क्यों तुम मुझे मारने पर तुले हो मेरे निर्दयी! बंधु ?
मेरा अस्तित्व मिटाकर स्वंय तुम भी बन जाओगे पंगु !!!