प्रकृति का प्रतिघात
प्रकृति का प्रतिघात
हवा में किस तरह का ये जहर छोड़ा गया,
एक घर की चाहत में एक घर छोड़ा गया।
आये थे खाने - कमाने के बहाने गावँ से,
आज डर के साये में ये शहर छोड़ा गया।
शुरू किसने किया और क्या पाया इससे,
जो दुनियाँ की बाँहों में ये क़हर छोड़ा गया।
ता ज़िन्दगी कमाया सहेज के रखा उम्रभर,
ब मुश्किल ही लोगों से फिर ज़र छोड़ा गया।
चल दिए पैदल ही मन्ज़िल तय थी अपनी,
अनुमान नहीं था राही किस पहर छोड़ा गया।