प्रेम की अनकही परिभाषा
प्रेम की अनकही परिभाषा
हाँ, तुमने ठीक कहा था
प्रेम की भाषा नहीं आती मुझे
क्योंकि प्रेम में शब्दों से ज्यादा
भावों का उतार चढ़ाव जा होना ज़रूरी है
भावनाओं की ढलान से फिसलकर
भावुक होना भी ज़रूरी है
तभी तो हमारा प्रेम यौवन की देहरी पर चढ़कर
अपने बालिग होने का प्रमाण दे पाएगा
तुम ही बताओ भला कैसे ये संभव है
किशोरावस्था में प्रेम उलझा था
जिंदगी के उलझे धागों को सुलझाने में
इसीलिए वक़्त से पहले बूढ़ा गया
गलती मेरी भी नहीं थी
न ही तुमने कभी बताया प्रेम क्या है
सुना है तुम स्वयं में शृंगार रस का सागर हो
हर रस है समाया है तुम्हारे नखरों में
तुम्हारे अधरों से बहती हैं
कभी करुणा रस की मधुर धारा
कभी वात्सल्य रस की निर्मल पावन गंगा
नयनों से टिप-टिप गिरती है
कभी शान्त रस की विशुद्ध यमुना
कभी वीभत्स रस की शीतल जमुना
हो सके तो बस इतना कर दो मेरे हमसफर
सभी रसों का मादक घोल बनाकर
उड़ेल दो मेरी बेचैनी के गागर में
हो जाऊँ मैं भी धन्य इसका रसपान करके।