पियर
पियर
हया और अरमानों के संग
बाँध संस्कारों के रंग
चल दिये हम उनके संग
ख़ुशियों भरे खूब थे वो पल
फिर भी मन में थी पियर की
यादों से हलचल
कहीं था इंतज़ार हर पल
कब आयेगा पियर जाने
वाला कल
लेकिन चन्द रोज़ बाद जो
पियर से मुलाकात हुई
तो लगा जैसे कोई नई बात हुई
वो देहलीज़ जो अपनी थी कभी
आज कुछ अनजानी सी लगी
वो कमरा जिसमें कभी
मेरी नन्ही दुनिया समाई थी
आज वहाँ सब ने बैठक
लगाई थी
आज उस आईने में बस
मेरी परछाईं थी
जिसमें कभी मेरे रूप
की रंगत मुझे निखरती
नज़र आई थी
वो ताखे जिन पर कभी
सजती थी ट्रॉफ़ीएस और
यादें मेरी
आज उन ताखों पर बस
चन्द कलाकृतियाँ सजी थी
वो आँगन जहाँ थे
कभी हँसी के ठहाके
आज शान्त पड़ा है
जैसे कोई तन्हा
दोशाला ओढ़े खड़ा है।
और नई पीढ़ी की
राह तकने लगा है।