पहाड़
पहाड़
कठोर शब्दों की कीलें
वे ठोकते जाते हैं
तुम्हारे कोमल मन पर
दर्द से निकलती है चीख
मगर तुम आह तक न भरती हो
भीतर बह रहा रक्त
बाहर न आ सकने की बेबसी में
जम जाता है एक दिन
वे फिर ठोक देते हैं एक और कील
और ठोकते जाते हैं
छिन्न -भिन्न हो जाता है तुम्हारा मन
दब जाती हैं तुम्हारी चीखें
और जम - जम कर बन जाता है
भीतर रक्त का पहाड़
उसी पहाड़ के नीचे दबकर
एक दिन मर जाती हो तुम
तुम चाहती तो खुद को बचा लेतीं
अगर पहली ही कील को निकाल फेंकतीं
महसूस हुए दर्द पर चीख उठतीं
जख्म से रिसते रक्त को बहने देतीं
मगर तुम सह गईं ,बार - बार ,हर बार
सुनो स्त्री! जिस सहनशीलता के गुण पर
तुम इतराती फिरती हो ना
यही एक दिन तुम्हें खा जाता है ....