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विनोद महर्षि'अप्रिय'

Others

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विनोद महर्षि'अप्रिय'

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पापा

पापा

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जन्म हुआ जब तो पाया

सर था मेरे पिता का साया

वो पिता ही थे जो अपनी

इच्छा को हमेशा मारकर भी

मेरी हर नादान इच्छा को

हमेशा पूरी करता आया

हर ख़्वाहिश होठों पर

आते ही उसका दिल

पिघल जाता था


ऊपर से डाँट और गुस्सा

लेकिन दिल में दर्द छुपाते थे

उम्मीदें जितनी कि थी मैंने

उससे भी ज्यादा उसने दिया

लेकिन कभी प्यार को अपने

दिखावा नहीं बनने दिया।

वो हर पल तड़पते मेरे लिए

मैं खामोश तब रहता था

वो दिन भर मेहनत करते

मैं खूब फरमाइश करता था


याद मुझे वो दिन है अब भी

जब मैं बड़े खिलौने लेता था

वो कम कमाते पता नहीं था

पर हर मेला मुझे घुमाते थे।

मैं भूल नहीं सकता कभी

वो त्याग कठोर पापा का

मैं भूल नहीं सकता कभी

उम्मीद भरा चेहरा पापा का


आज मैं बड़ा हो गया हूं

अब पैरों पर अपने चलता हूं

काबिल बनाया जिसने मुझे

अब ग़लती उसकी गिनता हूं

जो ख़्वाब मेरे पूरे करता था

अब मैं नींद उसकी उड़ाता हूं

जिसने चलना सिखाया मुझे

अब दुनियादारी उसे सिखाता हूं

क्या उसने नहीं किया था तब

मैं वो सब सच में भूल गया हूं


खोकर एक सुंदरी में मैं अब

उस पापा को ही मैं भूल गया हूं

आँफिस जाता हूं अब कमाता हूं

दवाई के लिए पापा को तड़पाता हूं

एक दिन तंग होकर घर की कलह से

गाड़ी में बिठाया मैंने पापा को ले गया

उन्हें एक ओल्ड एज होम

मेरे लिए जिसने बनाया था स्वीट होम


वापिस आया तो राह में किसी ने टोका

शायद कोई और नहीं मेरी रूह ने रोका

क्या किया मैंने यह अब समझ नहीं आया

जब घर को स्वर्ग बनाना था मुझे प्यार से

उस घर के देव को ठुकरा अब नरक बनाया

ग्लानि दुःख पश्चाताप आँसू सब थे मेरे पास

घर आया तो देखा वहां पाप नहीं थे आज।

आत्मा रो उठी मुझे धिक्कार रही थी वो

दोषी मैं ही हूं बार बार समझा रही थो वो


पर अब क्या करूँ किस मुख वापिस जाऊँ

जीवन भर जिसने पाला था प्यार से मुझे

उसको कैसे अपना यह मुंह अब दिखाऊँ

दर्द भरा सीने में आँखों मे अश्रुधारा थी

टोक रही थी एक आवाज़ मुझ को जाने से

पर अब की मैंने वो अनसुनी कर दी थी

गया फिर से वृद्धाश्रम लेने अपने पापा को

देखा तो पाँव तले ज़मीन नहीं थी मेरे

सामने पड़ा शांत शरीर मेरे जनक का

हाथ मे फ़ोन उठाये सेवक करते कॉल मुझे

रक्त मेरा जम गया था और साँसे थम गई

काश वो आवाज़ पहले अनसुनी करता

तो आज पाप को मैं यू ना खोता, आज

पाप को मेरे मैं यूँ ना खोता।।


वो स्वाभिमानी हृदय भला क्यों मानता

नहीं रह सकता मेरे बिन वो यह जनता

स्वार्थी तो मैं ही था उस वक्त भार समझा

अरे वो भार नहीं वो तो जीवनधार है

वो मेरे नही तेरे नहीं जीवन का सार है

वो इस जीवन का सार है.....



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