ओस की बूँद
ओस की बूँद
वो ओस की बूँद मुझे रोज़ सिहराती थी,
मन के मौसम को आकर बहलाती थी,
ठहर जाती थी नन्ही घास की फुनगी पर,
रोज़ सवेरे जैसे मुझसे आँख मिलाती थी,
एक दिन वो बूँद भी ज़मींदोज़ हो गयी,
थी ठहरती जहाँ...वो घास की फुनगी खो गयी,
सब कुछ प्राकृतिक ही तो हुआ होगा….!
यूँ ही तो मेरा एहसास मिट्टी में ना मिला होगा,
फिर भी मन को अपने समझाया है मैंने,
फिर कुछ नयी उम्मीदों को जगाया है मैंने,
उम्मीदें बाँधी और ख्यालों को पर लग गए,
कुछ छोटे-छोटे घास के कोपल फिर जग गए…!
एहसासों की बारिश शायद फिर से बरसेगी,
हाँ नन्ही ओस की बूँद फिर वहीं चमकेगी,