नज़्म
नज़्म
सदियों की धूल को
पैरों में चिपकाए
वक़्त उस दौर में आ पहुंचा है
जहां ज़िन्दगी घने दरख्तों से छन कर
आती हुई रौशनी की तरह है,
जो कशमकश की चादर लपेटे
साहिल में उसका इंतजार करती है
जिसका आना लाज़िमी है इक दिन।
इंतज़ार के इन्हीं अंतहीन लम्हों में,
जज़बात की मौजों पे सवार ज़ेहन,
झांक आता है उन घड़ियों में
जहां बचपन ख्वाबों की मखमली
पगडंडियों पे
कुलांचे मरता हुआ
जवानी की दहलीज पर जा पहुंचा था,
जहां रंग बिरंगे झालरों के बीच हक़ीक़त का आईना था,
जिसमें खुशियां थी,तल्खियां भी थीं और थीं बेशुमार
जिम्मेदारियां,
जिनका पीछा करते हुए
पता ही नहीं चला कब साये लंबे होते चले गये और
हो आई ज़िन्दगी की शाम।