नज़्म जो थी लिखी वो न भूले कभी
नज़्म जो थी लिखी वो न भूले कभी
नज़्म जो थी लिखी वो न भूले कभी
स्वार्थ ही स्वार्थ में डूबे दिखते सभी
जिंदगी थी हुनर अपना देती रही
अपने बदले मेरी जान लेती रही
हम बदलते बदलते यूँ क्या हो गए
मेरी आदत कभी ऐसी थी ही नहीं
हम रहे जिंदगी भर तेरे साथ थे
साथ तेरे कभी की बेवफ़ाई नहीं
जिनको समझा था अपना वो हुए ही नहीं
जिंदगी से लड़े तो फ़िर मौत से हम कभी
नज़्म जो थी लिखी वो न भूले कभी
स्वार्थ ही स्वार्थ में डूबे दिखते सभी।