निर्गुण
निर्गुण
सच्चा हूँ गुरबाणी सा
उसकी ओट में हर पल जीता हूँ
शांत हूँ मैं अपने ही अंदर
मैं शुद्ध अमृत नित पीता हूँ
वो शीतल हैं, वो भूतल हैं
वो अनिश्चित सर्वगुण सा पीतल हैं
मैं जितना देखूँ अपने को
वो मेरे ही हर पल भीतर हैं
क्या दुआ करुँ, क्या वफ़ा करुँ
क्या तकबीर करुँ, क्या अरदास करुँ
क्या माँगू मैं उस निर्गुण से
क्या दुख-सुख उससे बयां करुँ
वो अविरल हैं वो अंबर हैं
वो हर नदियों में बहता समुन्दर हैं
उसे क्या सोचूँ, उसे क्या खोजूँ
उसे जैसा देखूँ, उसे वैसा समझूँ
सब मुझे देखे, मैं उसे देखूँ
क्या समय बदला, क्या मैं बदलूँ
वो एक हैं, मैं नेक हूँ
वो विवेक हैं, मैं तेग़ हूँ
वो वाणी हैं, मैं विचार हूँ
वो शेर हैं, मैं शिकार हूँ
वो जीत हैं, वो मीत हैं
वो रीत हैं, वो प्रीत हैं
मैं कुछ भी नहीं, वो सबकुछ हैं
मैं निर्लज हूँ, वो निरंकुश हैं
वो सोच नहीं, वो मौज़ हैं
वो झूठा नहीं, वो फ़िरदौस हैं
मैं चिंता हूँ, वो चिंतन हैं
मैं अनबन हूँ, वो मंथन हैं
वो जी कर भी मरता नहीं
वो खो कर भी डरता नहीं
मैं अधूरा हूँ, वो पूरक हैं
वो तेरी-मेरी ही सूरत हैं।